किसी जमाने में हमारे यहाँ समाचार जानने के दो ही ज़रिए थे, पहला रेडियो और दूसरा अख़बार। रेडियो के ज़रिए हम समाचारों का संक्षिप्त चित्रण और अखबारो के ज़रिए उसे थोड़ा विश्लेषण के साथ पढ़ लिया करते थे। अब जो समाचार अप्रासंगिक होते थे, हम खुद ब खुद उसे दरकिनार कर, उस समय की प्रासंगिक समाचारों ध्यान देते थे। वही समाचार उस जमाने के राजनैतिक रिवायत या आप जिसे इंग्लिश में पोलिटिकल नरेटिव कहते है उसे समाज के सामने पटल पर रखते थे।
फिर एक अगला दौर आया जिसने समाचारों की दुनिया बदली। वो दौर दूरदर्शन का था, जिसमें समाचारों का दिखना, समाचारों को सुनने और समझने से ज़्यादा महत्वपूर्ण हो चला था। लेकिन वो ज़माना सरकार का समाचार पर काफ़ी हद तक नियंत्रण का था जिसमें दूरदर्शन और रेडियो, दोनो सरकार के हिस्से थे और उनका स्वतंत्र होने का कोई प्रश्न नहीं था। इसके कारण लोगों को समाचारों को दिखना पसंद होने के बावजूद उनकी विश्वसनीयता पर हमेशा संदेह रहता था। ख़ास कर उस दौर में जिसमें आप आपातकाल को भी देखा था। अतः दूरदर्शन और रेडियो के बावजूद, प्रिंट मीडिया की विश्वसनीयता काफ़ी हद तक बाक़ियों से ज़्यादा बनी रही थी।