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अप्रासंगिक को प्रासंगिक बनाने की कला और उसके कलाकार

किसी जमाने में हमारे यहाँ समाचार जानने के दो ही ज़रिए थे, पहला रेडियो और दूसरा अख़बार। रेडियो के ज़रिए हम समाचारों का संक्षिप्त चित्रण और अखबारो के ज़रिए उसे थोड़ा विश्लेषण के साथ पढ़ लिया करते थे। अब जो समाचार अप्रासंगिक होते थे, हम खुद ब खुद उसे दरकिनार कर, उस समय की प्रासंगिक समाचारों ध्यान देते थे। वही समाचार उस जमाने के राजनैतिक रिवायत या आप जिसे इंग्लिश में पोलिटिकल नरेटिव कहते है उसे समाज के सामने पटल पर रखते थे। 

फिर एक अगला दौर आया जिसने समाचारों की दुनिया बदली। वो दौर दूरदर्शन का था, जिसमें समाचारों का दिखना, समाचारों को सुनने और समझने से ज़्यादा महत्वपूर्ण हो चला था। लेकिन वो ज़माना सरकार का समाचार पर काफ़ी हद तक नियंत्रण का था जिसमें दूरदर्शन और रेडियो, दोनो सरकार के हिस्से थे और उनका स्वतंत्र होने का कोई प्रश्न नहीं था। इसके कारण लोगों को समाचारों को दिखना पसंद होने के बावजूद उनकी विश्वसनीयता पर हमेशा संदेह रहता था। ख़ास कर उस दौर में जिसमें आप आपातकाल को भी देखा था। अतः दूरदर्शन और रेडियो के बावजूद, प्रिंट मीडिया की विश्वसनीयता काफ़ी हद तक बाक़ियों से ज़्यादा बनी रही थी। 

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नपुंसक समाज के ढोंग

आज कल तो लगता है की हमारे ढोंग हमारे दिमाग़ के ऊपर ही हावी हो चले है और हम उसे सच ही समझ बैठे हैं। घर बैठे दुनिया बदल देने का हठ, या टीवी की दुनिया में जा कर चीन की टोंटी दबा देने का ग़रूर, यह एक ऐसे नपुंसक समाज का ढोंग सा हो चला है, जो आज तक अपने घर की बहु बेटियों को एक सुरक्षित वातावरण नहीं दे पाया है, पर वो छाती पिटते हुए अपनी गाथा में हर समय लगा हुआ है। एक ऐसा नपुंसक समाज जो आज केवल प्रजातंत्र के बिसात पर अपने गिनती में ज़्यादा होने के कारण, अपने खोखलेपन से आँखे छुपाए, शूतरमुर्ग के तरह अपने सर को छुपाये, अपनी वीरगाथा के ढिंढोरे पिटने में लगा है।

मैं यह भी मानता हूँ की यह सामाजिक समस्या, राजनैतिक विषय नहीं है और इसका उत्तर कोई राजनैतिक विचारधारा और कोई राजनैतिक दल है। यह एक ऐसा समाज है जो पूरी तरह से मानवता और आज के समय संदर्भ की नैतिकता से भी दूर खड़ा है। उसे तो ये भी नहीं पता है एक माँ-बाप का दर्द उससे उसकी बच्ची का एक भयावह परिस्थिति में बिछड़ने का कैसे होता होगा, जब उन्हें अपनी बच्ची को आख़री बार देखने की इजाज़त इस बात पर नहीं दी जाती है की इसका फ़ायदा राजनैतिक कारण से और मीडिया के गिद्ध अपने हर दिन के टीआरपी कारण से कर सकते है। अब इस परिस्थिति में ग़लत कौन है, यह मेरी समझ से तो बाहर है । 

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नौकरशाही की बदलती चाल और हमारा भविष्य

उदार पूँजीवादी व्यवस्था जिसकी रचना मुक्त बाज़ार पर आधारित है, हमारे देश में यह आर्थिक संरचना, श्री नरसिम्हाराव और श्री मनमोहन सिंह जी की सरकार ने १९९१ ने अपनाया था। कारण तो स्पष्टतः हमारी जर्जर होती अर्थव्यवस्था थी, जो की समाजवाद और पूंजीवाद की मिश्रित आर्थिक नीति पर आधारित था। अब यह जर्जर होती अर्थव्यवस्था के कारण तो बहुत सारे थे, परंतु आर्थिक दृष्टि से इससे बचने के लिए हमारे राजनायकों को उदार पूंजीवाद शायद सबसे बेहतर रास्ता समझ आया, और हम उस रास्ते पर चल पड़े। परंतु क्या हम लोगों ने गम्भीर रूप से इस बात को सोचने की कोशिश की, कि आख़िर मिश्रित अर्थव्यवस्था की आर्थिक नीति में क्या ख़राबी थी, जो हम आर्थिक तौर पर जर्जर हो गए? शायद हम लोगों को आर्थिक गाड़ी बदलना ठीक लगा, पर हम लोगों ने गाड़ी चला कौन रहा है और चलाने वालों को बदलने का नहीं सोचा। सोचने की बात ये भी है की श्री मनमोहन सिंह जी, जिनका मैं खुद भी एक मुरीद भी हूँ, वो भी उसी चालक दल के सदस्य थे, जो उस समय तक इस आर्थिक वाहन को चला रहे थे। 

कभी ग़ौर से सोचे तो यह लगता है की ये नयी गाड़ी या नए रास्ते पर चलने की सलाह कहाँ से आयी, जबकि हम लोगों ने पुराने चालक के बारे में कभी सोचा ही नहीं। या ऐसा तो नहीं की ये पुराने चालक अपनी नाकामियों को छुपाने के लिए, इस नयी गाड़ी और नए रास्तों की वकालत कर रहे थे और हम जैसे अंधे उनकी बात को मानते हुए, अपनी पुरानी जमा पूँजी बेच कर, एक नयी गाड़ी में बैठ, ये नए अंधे रास्ते पर, उन्ही ड्राइवर और चालक के हाथ गाड़ी दे कर चल पड़े। वो चालक और ड्राइवर तो आज भी आपके लिए नयी गाड़ी चला रहे है, पर क्या आप सच में प्रगति के पथ पर तेज़ी से आगे बढ़ रहे हैं, या आपको केवल ये तेज़ी इस लिए दिख रही है की आपको इस नयी सूचना और मीडिया की दुनिया में वैसे ही दिखाया जा रहा है जो चालक आपको दिखाना चाहता है ।