हमारी व्यवस्था की अस्वस्थता

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स्वतंत्रता दिवस पर सभी को हमारी यहाँ शुभकामनाएँ देने की परम्परा है। अब किस बात की स्वतंत्रता है ये तो वही बता पाएँगे जो आज से ७४ साल पहले इतने होश हवास में थे की राजनीतिक स्वतंत्र होने का मतलब समझ पाते होंगे, अन्यथा बाक़ियों के लिए तो एक राजा रानी की कहानी ही लगती है जिसके अंत में वो सुख चैन से हमेशा के लिए रहने लगते थे। क्या हम भी उसी सुख चैन से रहने लगे जो ये कहानियाँ बताती है, और नहीं तो हम किस बात की ख़ुशी ७४ साल की एक पुरानी घटना पर ख़ुशी मनाते और बधाइयाँ देते हैं?

अब मुझे तो नहीं मालूम की ७४ साल पहले राजनीतिक स्वतंत्रता के क्या मायने थे, इसके अलावा की ब्रितानिया का झंडा, आपके अपने झंडे से ऊँचा था, गोरे शासक का फ़रमान हमारे लिए ब्रह्म वाक् की तरह था और साथ में कुछ हमारे देशवाशी भी उनकी नज़दीकियों का फ़ायदा उठाते हुए, अच्छी परिस्थितियों में रहा करते थे। पर शायद ये कहना की हम अंगरेजो के ग़ुलाम है वो कुछ लोगों को खल रहा होगा। उनके साथ सामाजिक और राजनीतिक बराबरी ना होने के कारण जो मानसिक स्थिति उपजी होगी, मुझे लगता है की उसी के चलते स्वतंत्रता संग्राम में हमारी पुरानी पीढ़ी कूद पड़ी होगी। अन्यथा बाक़ी कोई कारण ७४ साल बाद तो नहीं दिखता है जिसके चलते हम ये कहें कि नया शासक वर्ग उस पुराने अंग्रेज शासकों से बेहतर है और हमें पहले की अपेक्षा बेह्तर शासन दिया जा रहा है। शासक का जनता के प्रति उपेक्षा और उनके प्रति उदासी आज भी उतनी ही है शायद जैसे पहले होगी। इसका सबसे बड़ा उदाहरण अंग्रेजो द्वारा बनाई व्यवस्था की बढ़ती अस्वस्थता और दूसरे शब्दों में आज की व्यवस्था की चरमराती और गिरती अवस्था है।

‘रूल ओफ़ लॉ’ या न्याय की व्यवस्था जो अंग्रेज़ी सरकार की सबसे बड़ी देन, आधुनिक भारत के निर्माण में जो नीव की तरह गाढ़ी गयी थी, आज उसमें राजनीतिक घुन इस तरह से लग चुका है की अब ये इमारत गिरने के कगार पे ही लगता है। मजबूत राज्य की परम्परागत सिद्धांत जिसमें राज्य के विभिन्न अंग, कार्यपालिका, न्यायपालिका और राज्यपालिका को आपस में सामंजस्य के साथ दूरी बनाई रखनी थी, आज ‘मजबूत राष्ट्र’ के नाम पर एक से हो चले हैं। राज्य का चौथा खंबा जाने वाले मीडिया तो जैसे कार्यपालिका का ही हिस्सा सा बन गए है। अब ये कार्यपालिका का हिस्सा भी रहते तो शायद एक शर्म का पर्दा भी होता। इन्होंने साथ साथ न्यायपालिका का भी काम सम्भाल लिया है। राज्यपालिका तो खैर क्यूँ है इसकी समझ तो मुझे अब रह नहीं गई है पर शायद यह राजनीतिक दलों के लिए टेलिविज़न पर कुछ समय दिखने के लिए, आपस में तु तु मैं मैं कर के देश को ये दिखाना की वो आपके लिए कुछ काम कर रहे है, इससे ज़्यादा नहीं रह गया है। कभी कभी तो लगता है की ये सारे तंत्र केवल आपस में एक दूसरे के अस्तित्व की औचित्य बताने के लिए ही रह गए है, जिससे इन लोगों की रोज़िरोटी और पेन्शन की व्यवस्था को साबित किया जा सके। सच तो अब ये लगता की ये ना भी रहे तो क्या फ़र्क़ पड़ जाएगा?

अब एक खम्भे को ले लीजिए जहां वो इस बात के लिए गम्भीर है की किसी एक वकील ने ट्विटर पर कुछ लिख दिया और उससे उनके शाख़ को धब्बा लग गया । इस मसले को वो अपने लोहे वाले हाथ के ज़रिए ठीक कर रहे है परंतु बाक़ी गम्भीर से गम्भीर मसले के बारे में अभी सुस्ती और करोना का असर चल ही रहा है । अब उन्हें कौन कहे की आपका काम सनी देवल के दो किलो के घूँसे देने का नहीं बल्कि क़ानून को सही दिशा में रखने और न्याय की व्यवस्था को सही रखने में करना है। लोगों को सरेआम रोड पर पुलिस द्वारा न्याय बिना किसी प्रक्रिया की दे दो जाती है । इस बात पर किसी को कोई जल्दी या इस न्याय की व्यवस्था को ठीक करने में नहीं है। साल भर से लोग बिना किसी अधिकार के भी रह रहे है पर उनके मौलिक अधिकार की चिंता किसी को नहीं है। परंतु ट्विट के ज़रिए की गई भर्तसना की चिंता बहुत ज़्यादा है।

अरे भई आप पर हमारा विश्वास इस कारण नहीं है की कोई अपने बारे में क्या कह रहा है। ये तो हमारी मजबूरी है कि हमें आपके पास आख़री आस की तरह आना पड़ता है। अन्यथा तो मुझे नहीं लगता है की आपके अपने भी सदस्य एड़ी घसीटने के लिए आपके पास आना पसंद करेंगे। इन्हें शायद ये पता नहीं है कि इनके पास लाखों लाख मामले सालों से लटके पड़े है और लोगों ने इनकी आस में ज़िन्दगी निकाल दी है पर इन्साफ़ की सुनवाई तो अभी शुरू भी नहीं हुई है। पर ये समस्या तो अभी की नहीं है अतः इसपर करवाई की ज़रूरत करने की क्या ज़रूरत है ? ज़रूरत सिर्फ़ उन मामलों की है जो आपको ज़रूरी लगता है । वो भी तब तक के लिए जब तक कोई मामला साँप छछूंदर वाली ना हो जाये। अब आगे क्या कहा जाए।

बाक़ियों की स्थिति तो बताए नहीं बनती है । राज्य के बाक़ी स्तंभ तो कहने के लिए ही स्तम्भ हैं अन्यथा सच में तो अब केवल ये गुटबाज़ी या दलाल वाली भूमिका में रह गए है । जो व्यवस्था अभी थोड़ी बहुत चल रही है शायद वो उन अंगरेजो की ही मेहरबानी रही है जिसे शुरू के राजनेताओ ने पहचान कर उसे मज़बूत और जीवित रखने की कोशिस की थी ।कभी ग़ौर से सोचता हूँ तो लगता है की आज का संविधान जिसका महिमा हम हमेशा कहते है शायद ७५% और उससे भी ज़्यादा, १९४७ में आज़ादी के पहले तैयार हो चला था। सरकार के सारे बुनयादी ढाँचे से लेकर राज्यों की स्थिति सभी को १९०९, १९१९ और १९३५ के अधिनियम और मूलभूत बदलाओ के ज़रिए आधुनिक संविधान की नीव को स्थापित किया जा चुका था। बाक़ी बचा हमारा मौलिक अधिकार तथा कुछ छोटे मोटे प्रकरण जिसे हमने अमेरिका और बाक़ी के कुछ देशों से देख कर अपना लिया। हो सकता है कि हमारी कट पेस्ट की परम्परा यही से शुरू हुई हो जो आज भी हमें जुगाड़ु विद्या में बहुतो से आगे रखे है। पर इसका मतलब ये नहीं है की हमारी व्यवस्था सुधरी है बल्कि विपरीत ये पहले से ज़्यादा जर्जर और अव्यवस्थित हो गयी है।

अब ये भी सच है की हमारे देश की १३० करोड़ की आबादी में १३ करोड़ विद्वान तो है ही जो हमें इसका ज्ञान देते रहते है की हमें इस व्यवस्था को कैसे सुधारना है। मैं भी अपने को उन्ही में से एक समझता हूँ। इन सभी की बातों में दम तो रहता होगा परंतु शायद खुद कुछ करने की इच्छा नहीं रहती है। यही हमारी व्यवस्था की सबसे बड़ी ख़ामी है। हम यह आशा तो करते है की इन व्यवस्थाओं में सुधार हो पर ये सुधार हमारे बिना कुछ किए ही हो जाये, इस सिद्धांत पर हम सभी चल रहे है, और इसका ख़ामियाज़ा भी हम सब भुगत रहे हैं।

(लेखक एक पूर्व प्रशासनिक अधिकारी। उपरोक्त लेखक के निजी विचार हैं।)

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