पूँजीवाद व्यवस्था और लोकलुभावनवाद के बीच भारतीय राजनीति

56

यह एक सत्य है कि हमारी आज़ादी के बाद की राजनीति, १९९० तक उदार समाजवाद के इर्द गिर्द घूमती रही थी। शुरू के दशकों में मिश्रित अर्थव्यव्स्था की स्थापना के साथ हमारी अर्थव्यवस्था समाजवाद और पूंजीवाद के बीच सामंजस्य बनाने की कोशिश में एक हद तक सफल भी रहा, जिसमें हमारे यहाँ बेधड़क पूंजीवाद पर काफ़ी हद तक लगाम भी लगा रहा। परंतु यह हमारी अर्थव्यवस्था को बढ़ने पर भी रोक लगाए रखा और वो हिंदू ग्रोथ रेट से हमें कभी आगे जाने नहीं दिया। इसके साथ ही यह नयी टेक्नॉलजी पर अंकुश,पूँजी की कमी और इन्स्पेक्टर राज तथा भ्रष्टाचार के दीमक के रूप में हमारे अर्थव्यवस्था को कुंठित करता रहा। ७० के दशक के साथ ही इस पुरानी अर्थव्यव्स्था की कमज़ोरियाँ खुल कर सामने आने लगी। इन कमज़ोरियों का राजनीतिक मुखड़ा, ग़रीबी हटाओ के नारे, साधनो का राष्ट्रीयकरण, आपातकाल और अराजकतावाद के रूप में भी हम लोगों ने देखा।

आर्थिक रूप से इन सारी बातों को इस तरह भी समझा जा सकता है की प्रारम्भ की स्थिति में जब अर्थव्यवस्था के स्तर पर हम मिश्रित अर्थव्यवस्था को मुख्य आर्थिक नीति की तरह देखते थे, तब उदार समाजवाद, उस अर्थव्यवस्था का सामाजिक पहलू था, जिसके ज़रिए सामाजिक धन या सामाजिक साधनों का समाज के सारे वर्गों के बीच विकेंद्रीकरण किया जाता था । पीडीएस, नियंत्रित अर्थव्यव्स्था और सरकार का सारे अर्थव्यव्स्था में सीधी भागीदारी, सामाजिक साधन के विकेंद्रीकरण का सबसे सीधा और कारगर तरीक़ा माना जाता था। परंतु यह भी सत्य है की ये तरीक़े हमारे समाज के सबसे नीचे तबकों के लिए बहुत फ़ायदेमंद भी नहीं साबित हुआ। इसके अलावा यह राष्ट्र की अर्थव्यवस्था को अंत में उस जर्जर स्थिति तक ला खड़ा किया जहां से उसी समाजवाद के रास्ते पर चलना सम्भव नहीं था।

८० का दसक हमारे राष्ट्र के उदारवादी समाजवाद के विचार के लिये आख़री दशक था, जिसने श्रीमती इंदिरा गांधी की दुखदाई हत्या के साथ, नई हवा के रूप में श्री राजीव गांधी को हमारे मानस पटल पर स्थापित किया। राजीव गांधी की सोच पुराने समाजवाद के साथ मेल नहीं खाते थे, और उसके साथ वो पश्चिमी पूंजीवाद के साथ काफ़ी हद तक मानसिक स्तर पर आरामदायक स्थिति में थे। उनके दिमाग़ में नई टेक्नॉलजी और मुक्त अर्थव्यव्स्था, भारत को २१वी सदी में के जाने के सबसे बड़े औज़ार थे। उनके समय में ही भारत को उदार पूंजीवाद के तरफ़, खुली नीयत से देखने का मौक़ा मिला, जिसका पटाक्षेप श्री नरसिम्हा राव की सरकार ने श्री मनमोहन सिंह की निगरानी में ९१ में क्रियान्वित किया।

१९९१ में श्री मनमोहन सिंह ने उदारीकरण की प्रक्रिया की शुरुआत कर भारत की आर्थिक ढाँचे में मूलभूत बदलाव लाया । यह बदलाव एक हद तो तो हमारे लिए काफ़ी फ़ायदेमंद साबित हुआ और पहली बार मध्य वर्ग समाज में मुख्य किरेदार की तरह उभर कर सामने आया । यह प्रक्रिया दो दशक तक हमारी आर्थिक व्यवस्था को मज़बूती प्रदान करता रहा जिसका फ़ायदा सामान्य वर्ग को काफ़ी हद तक मिला। पर इसके बाद का दशक हमारे व्यवस्था के लिए आर्थिक रूप से अच्छा साबित नहीं हो सका और इसका मुख्य कारण सरकारों का ध्यान लोकलुभावनवाद (पॉप्युलिज़म) और सरकार में बने रहने की राजनीति रही। इसके साथ ही बाद की सरकारों का ध्यान अर्थ व्यवस्था पर ना हो कर सामाजिक और धार्मिक ध्रुवीकरण, वोट बैंक की राजनीति, सस्ता लोक लुभावनवाद तथा व्यक्तिवाद पर ज़्यादा रहा।

दुसरे शब्दों में कहे तो यह लगता है की केन्द्र की सरकार जो आर्थिक व्यवस्थाओं के लिए ज़्यादा ज़िम्मेदार और मुख्य भूमिका में थी, उसने भी इस दशक में राज्यों की तरह ही अपनी नीति को चलाना शुरू कर दिया, जिसमें वोट की राजनीति हमेशा से आर्थिक समझदारी पर हावी रहा है । यूपीए-२ की पूरी राजनीति इससे ग्रसित रही और इसका ख़ामियाज़ा उन्हें २०१४ के चुनाव में भुगतना पड़ा। बीजेपी की सरकार भी अब उसी रास्ते अग्रसित लगता है, जो नीतियो में मूलभूत बदलाव पर ध्यान ना देते हुए, उसी लोकलुभावनबाद की प्रक्रिया में व्यस्त नज़र आती है।

अब यह लोकलुभावनबाद केवल आर्थिक दृष्टि से नहीं देखा जा सकता है, बल्कि इसका राजनीतिक पहलू जो हिंदू संकीर्ण मानसिकता से सीधा जुड़ा है। वह इसे उस रास्ते पर धकेल रहा है जिसका अंत हमारे राष्ट्र के लिए केवल दुखदाई ही हो सकता है। अतः इन राजनीतिक दलों को आर्थिक नीतियों और उसके ज़रिए समाज में धन और साधन के विकेंद्रीकरण की प्रक्रिया के बारे में फिर से सोचने की ज़रूरत है, अन्यथा प्रजातंत्र में क़िसी भी दल और व्यक्ति के साथ मोहभंग होने में ज़्यादा समय नहीं लगता है। कोरोना काल इस परिस्थिति को काफ़ी तेज भी कर सकता है। २४% की जीडीपी में गिरावट शायद सरकार को आख़री चेतावनी की तरह है, जो अपने आप को शतुर्मुर्ग वाली स्थिति में रख रही है। अभी भी समय है, जिसमें सरकार निन्दको द्वारा की जा रही बातों पर ध्यान देते हुए कुछ चेत जाये और आर्थिक मसलों पर बखूबी ध्यान देते हुए, लोकलुभावनवाद और प्रचार की दुनिया से बाहर आकर काम करना शुरू करे।

(लेखक एक पूर्व प्रशासनिक अधिकारी। उपरोक्त लेखक के निजी विचार हैं।)

Add comment


Security code
Refresh