कभी कभी कुछ चीजें हमारे ज़हन में बचपन से बैठ जाती है। ये अच्छा है , वो ख़राब है, वो ठीक है, ये ग़लत है, वो हमारे दोस्त है और ये दुश्मन है। बचपन में हमारे दिमाग़ में डाली वो बातें हमें हमेशा सच ही लगती है और बड़े होने के बाद वही बातें हमारे लिए यथार्थ की वो धरातल होती है जिसपर हम अपने सोच की फ़सल को लगाते हैं। अब अगर वो धरातल हमारे नुमाइंदों की हो तो शायद नयी सोच की सारी फ़सल भी उसी चश्मे से देखी जायेगी। यह मुग़ल बनाम हम भी शायद उसी धरातल से उपजी फ़सल है जिसे हम सियासत की बाज़ार में हर दिन ख़रीद और बेच रहे हैं।
किसी जमाने में मैं ने बंकिमचंद्र चैटर्जी की महान रचना आनंद मठ पढ़ा था। अब वो बचपन के दिन थे इसलिए मुझे किताब में लिखे अक्षर तो समझ में आ गए थे परंतु किताब की भीतर का छुपे भाव को शायद नहीं समझ पाया। बड़े होने पर गुरुओं ने आनंद मठ का महत्व मुझे राजनैतिक और सामाजिक दृष्टि से भी समझाया जिसमें उस समय के बंगाल में मुस्लिम शासकों का पतन, समाज के नैतिक चरित्र की गिरावट, सन्यासी विद्रोह और अंग्रेज़ी साम्राज्य की दस्तक सभी शामिल थे।
२०वी शताब्दी के प्रारम्भ से इस महान रचना को देखने का नज़रिया किसी भी राजनैतिक विद्रोह के साथ जोड़ कर देखा जाने लगा और इसकी मुख्य कविता ‘वन्दे मातरम्’ को आज़ादी की लड़ाई में लोगों को एक सूत्र में बांधने के लिए सबसे कारगर हथियार की तरह काम में लाया गया। परंतु यही महान रचना, एक ख़ास विचारधारा के तहत बिलकुल संकीर्ण दृष्टि तरह से देखा गया जिसने उस समय के घरेलू मुस्लिम शासक को, वहाँ के हिंदुओं के ऊपर अत्याचारी शासक के रूप में पेश किया गया।
यहाँ पर सोचने की बात ये थी की ये घटना किसी भी डूबते साम्राज्य के आख़री वक्त में वहाँ के सामन्तवादी शक्तियों द्वारा आम जनता का शोषण को ना देखते हुए, एक धर्म के शासक द्वारा दूसरे धर्म की अवाम पर धार्मिक आधार पर शोषण के रूप में दिखाया गया। इसके कारण यह मसला धार्मिक रूढ़िवादी शक्तियों के लिए हथियार की तरह काम आया और वो इन महान रचना को अपने ढंग से ही देखते रहे।
शायद इसी कारण से कुछ वर्गों के लिए ‘वन्दे मातरम्’ का महत्व ‘जन गण मन’ से ज़्यादा दिखता है। ‘जन गण मन’ जो राष्ट्र की सम्प्रभुत को एक धर्म निरपेक्ष नज़रिए से ‘जय’ करता है वो आज की राजनीति के लिहाज़ से कोई मोहक विचार नहीं है। जबकि ‘वन्दे मातरम्’ एक सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में मात्रीभूमि को हमारा सलाम है। अब इन दोनो भावनाओं में तो कोई फ़र्क़ नहीं है परंतु दोनो गान के ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को अगर ग़ौर से देखे तो ‘वन्दे मातरम्’ का हिंदू सांस्कृतिक परिपेक्ष से सीधा जुड़ाव दिखता है। यह भी एक कारण है की जिससे ‘वन्दे मातरम्’ को धार्मिक हिंसक घटनाओं और उग्र राष्ट्रवाद के साथ देखा जाता रहा है। यह दोनो नज़रियों की संकीर्ण मानसिकता है जो आज हमारे राष्ट्रगान और राष्ट्रगीत को भी कठघरे में ला खड़ा किया है।
यह भी सच ही है की इस विचारधारा में इस बात से कोई मतलब नहीं है की इससे हासिल क्या होगा ? क्या ये देश की भलाई और मज़बूती में काम देगा? या ये सिर्फ़ लोगों को बाटने की क़वायद है जिसके ज़रिए ३०० से ७०० साल पुरानी ऐतिहासिक घटना को आज के संदर्भ में राजनैतिक लाभ के लिए भंजाया जा रहा है। अब हमारे मुख्य मंत्री जी को कौन कहे की मुग़ल संग्रहालय का नाम मुग़ल संग्रहालय इस लिए है की उसमें मुग़ल काल के सामानो, किताबों आदि का संग्रह है ना की इससे मुग़लों का कोई प्रचार हो रहा है। उस संग्रहालय को और उसके साथ उत्तर प्रदेश को वीर शिवा जी से क्या लेना देना है, यह तो पल्ले पड़ने वाली बात नहीं है। पर नहीं अब जिस शासक को बचपन से उसके राजनैतिक विद्यालय में मुग़ल एक दुश्मन की तरह से बताया गया है वो इससे ज़्यादा और क्या सोच सकता है।
आपके लिए आज यह परोस दिया गया है, आप इसका सेवन करे और भूल जाए की टोयोटा कम्पनी ने आपकी टैक्स प्रणाली से परेशान हो कर इस देश में आगे कोई भी निवेश करने से मना कर दिया है। अब यह तो कोई स्वादिष्ट ख़बर है नहीं अतः आप मुग़ल नाम बदलने से ही ख़ुश हो लीजिए। अब आर्थिक स्थिति बद से बदतर ही जाए क्या फ़र्क़ पड़ता है। आज कि राजनैतिक रोटी तो सिकती ही जा रही है। पहले यह धर्म की राजनैतिक विचारधारा जो कभी समाज के हासिये पर था वो आज राजनैतिक पतवार के सहारे समाज की मुख्य धारा में बदल गया है।
आज इस मुख्य धारा का सबसे बड़ा उदाहरण तो हमारे आज के टीवी चैनेल हो गए है जो खुले आम संविधान और न्याय प्रक्रिया की बेशर्मी से धज्जियाँ उड़ाते रहते है और आपके कुछ कहने पर वो गुर्राते हुए आपको ही देश के दुश्मन साबित करने में लग जाते हैं। आप तो इस टीवी के व्यापार में सिर्फ़ एक प्यादे की तरह हैं जो केवल टीआरपी की बिसात पर हर दिन दो टके के भाव बिकते हैं।
परंतु आज की राजनैतिक बिसात पर यह सभी प्रकरण इस कारण नहीं है की जो दिखता है, वो बिकता है। बल्कि यह इस कारण है की सिर्फ़ यही बेचा जाता है और आपके पास इसको छोड़ कुछ और ख़रीदने को नहीं है। अब आज पाकिस्तान है तो कल ख़ालिद है तो परसों कन्हैया है। बाज़ार में बेचने के लिए नौकरशाही में मुस्लिम षड्यंत्र भी इसी बाज़ार का हिस्सा है, जिसमें हमें हर दिन यही खाने को दिया जा रहा है।
खाना है तो यही खाइये अन्यथा अपने रास्ते हो निकल जाइये। अब ज़िंदा रहना है तो खाने को तो चाहिये। फिर हर दिन एक ही खाना मिलेगा तो शुरू में शायद आप कुछ बोर होंगे, अगर ज़्यादा भावुक हैं तो कुछ विरोध भी करेंगे। पर धीरे धीरे आपको इसकी आदत हो जायेगी। बाद की पीढ़ी को तो लगेगा की खाने की सिर्फ़ यही एक वस्तु होती है और यही उस समय का सच रहेगा। हाँ, शायद अगर आज कुछ चूँ चाँ करने की दिलेरी दिखायें, तो ट्रोल, जेल, एनएसऐ जैसी परिस्थिति के लिए तैयार रहे। यह ना भी सही तो देशद्रोही, ग़द्दार, अर्बन नक्सल, लिबटार्ड और सिकुलर जैसे उपाधियों से नवाज़ने के लिए तैयार रहे। आख़िर में प्रजातंत्र के बिसात पर आप केवल एक वोट है, और आपके विपक्ष में एक अनियंत्रित भीड़ इकट्ठा कर दी गई है। इसके साथ हो लीजिये और नहीं तो सरेआम इस भीड़ से आज नहीं तो कल पिटने के लिए तैयार रहिये। यही आज के प्रजातंत्र में ज़्यादा सोचने वालों की नियति है ।
(लेखक अवकाशप्राप्त अर्धसैन्य बल पदाधिकारी हैं)