अप्रासंगिक को प्रासंगिक बनाने की कला और उसके कलाकार

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किसी जमाने में हमारे यहाँ समाचार जानने के दो ही ज़रिए थे, पहला रेडियो और दूसरा अख़बार। रेडियो के ज़रिए हम समाचारों का संक्षिप्त चित्रण और अखबारो के ज़रिए उसे थोड़ा विश्लेषण के साथ पढ़ लिया करते थे। अब जो समाचार अप्रासंगिक होते थे, हम खुद ब खुद उसे दरकिनार कर, उस समय की प्रासंगिक समाचारों ध्यान देते थे। वही समाचार उस जमाने के राजनैतिक रिवायत या आप जिसे इंग्लिश में पोलिटिकल नरेटिव कहते है उसे समाज के सामने पटल पर रखते थे। 

फिर एक अगला दौर आया जिसने समाचारों की दुनिया बदली। वो दौर दूरदर्शन का था, जिसमें समाचारों का दिखना, समाचारों को सुनने और समझने से ज़्यादा महत्वपूर्ण हो चला था। लेकिन वो ज़माना सरकार का समाचार पर काफ़ी हद तक नियंत्रण का था जिसमें दूरदर्शन और रेडियो, दोनो सरकार के हिस्से थे और उनका स्वतंत्र होने का कोई प्रश्न नहीं था। इसके कारण लोगों को समाचारों को दिखना पसंद होने के बावजूद उनकी विश्वसनीयता पर हमेशा संदेह रहता था। ख़ास कर उस दौर में जिसमें आप आपातकाल को भी देखा था। अतः दूरदर्शन और रेडियो के बावजूद, प्रिंट मीडिया की विश्वसनीयता काफ़ी हद तक बाक़ियों से ज़्यादा बनी रही थी। 

इकीसवी सदी के साथ हमारी मीडिया की दुनिया एक नए कट्टर प्रतिस्पर्धा के युग में प्रवेश किया। यह वह युग था जब निजी मीडिया चैनल बड़े पूँजीपतियों के कंधे पर आसीन हो कर, एक व्यापारिक मॉडल की तरह विकसित हुए। अब ये समाचार चैनल २४x७ मॉडल होने के कारण समाचार चैनल से ज़्यादा समाचार विश्लेषण चैनल में बदलते गए । अब समाचारों में भी कुछ ऐसे चैनल थे जिन्होंने मनोहर कहानियाँ, सत्य कथाओं के रास्ते को, कुछ ने ब्लिट्स जैसे मुख़्तसर जैसे मॉडल को अपनाया और उन जैसे बनने की कोशिश में आगे बढ़े। 

लेकिन इन सभी मॉडल में समाचार विश्लेषण चैनल सबसे सफल साबित हुए चूँकि उन्हें ना तो समाचार तक पहुँचने का कष्ट करना है, ना उसे उन समाचारों की सच्चाइयों से कोई मतलब है। उन्हें मतलब है , उन विषयों के विश्लेषण से जिससे जनता पूरी तरह से ना जान सकती है और ना समझ सकती है। ये विषय उस समय प्रासंगिक दिखाना बेहद आसान भी है क्योंकि आपको वो वैसी ही प्रासंगिकता के साथ साथ दिखाया जाता है। इस दूरदर्शन मीडिया की दुनिया में यह एक बेहद आसान कार्य है, जहां ज़ूम इन और ज़ूम आउट करना मीडिया के बायें हाथ का खेल है। 

अब उदाहरण के तौर पर देखे तो ज़ूम इन कर के आपको किसी एक तिल के दाने के बराबर की घटना को ताड़ जैसा दिखाया जा सकता है और अगर आप ज़ूम आउट कर देखे तो एक ताड़ जैसी घटना को भी एक तिल की तरह दिखा सकते है। मीडिया के लिए दोनो तिल और ताड़ ख़बर ही है, पर आपको इन खबरों के सामाजिक प्रासंगिकताओं के हिसाब से दिखाने की ज़िम्मेवारी जो पहले उन पर थी अब आज के दिन में केवल इन समाचार मीडिया के कलाकारों की मर्ज़ी पर रह गई है । कम महत्व के अप्रासंगिक विषयों को अतिमहत्वपूर्ण प्रासंगिक बना कर दिखाना जायज़ है या नहीं, यह एक मौलिक तौर पर नैतिक सवाल है जिसका जवाब मीडिया देना नहीं चाहता है। 

अब हम गौर से देखे तो हम ये भी देख सकते है की इन सवालों का कोई नैतिक कारण नहीं हो कर अब ये केवल राजनैतिक और व्यापारिक कारणो के कारण ही मीडिया में खेलें जा रहे है। ये व्यापारिक कारण शायद टीआरपी की दौड़, या राजनैतिक कारण से सीधा वित्तीय लाभ भी हो सकता है अन्यथा ऐसे अप्रासंगिक समाचार और क़िस्से जो सत्यकथा और मनोहर कहानियों के लिए तो ठीक है, इन समाचार चैनलों द्वारा हमारे पर २४x७ पर थोप कर आज के लिए प्रासंगिक बनायें जा रहे है। अब हमारे लिए चीन के द्वारा हमारे ज़मीन पर क़ब्ज़ा, या २१वी सदी में मानव समाज का इतने बड़े स्तर पर पलायन से ज़्यादा प्रासंगिक कुछ लोग का का गाँजा पीना ही रह गया है। 

हमारे आज के टीवी चैनल आज इस अप्रासंगिक और शायद कम महत्व के विषयों को आज का सबसे महत्वपूर्ण प्रसंग बना कर हर दिन आपको बेच रहे है और हम जैसे बेवक़ूफ़ ख़रीदार उसे ही आज का सबसे महत्वपूर्ण विषय समझ ख़रीद रहे है। इस कला में आज के मीडिया घराने पूरी तरह से विशेषज्ञ हो चुके है और हम सभी उनके मायाजाल में पूरी तरह से फँसे हुए है। पर यह भी शायद बर्दाश्त किया जा सकता था, अगर ये मीडिया की कहानियाँ, किसी मनोहर कहानियाँ, सच्ची कथायें, और टीवी के चैनलों में ‘क्राइम पेट्रोल’ या ‘सावधान इंडिया’ जैसे प्रोग्राम तक सीमित रहता। पर दुःख का विषय यह है की ये अप्रासंगिक कहानियाँ ही आज का मुख्य राजनैतिक विषय, मुद्दा या नरेटिव हो गया है । 

आज हम इस बात की चिन्ता में ज़्यादा दुबले हो रहे है की किसने आत्म हत्या किया या उसकी हत्या हुईं, कौन कितना गाँजा सुलगाया, कौन सा डिजिटल ऐप का बंद होने से चाइना को कितना बर्बाद कर दिया गया या किस बलात्कार में जाति और धर्म विशेष की क्या भूमिका है। हमें इस बात की चिन्ता नहीं है की एक राज्य एक साल से ज़्यादा समय से बंद है, बच्चे ७ महीने से ज़्यादा समय से स्कूल नहीं जा पा रहे है, लोगों के पास रोज़गार नहीं है और १०० लोग की नौकरी के लिए लाखों चले आ रहे है। ये इस लिए है की हमारी मीडिया अप्रासंगिक विषयों को हमारे राष्ट्र और हमारे मानस पटल पर इस तरह रख रही है की हम केवल अप्रासंगिक विषयों को ही आज की गम्भीर प्रासंगिक विषय की तरह ले रहे है और हमारा ध्यान सच के गम्भीर प्रश्नो से दूर रह रहा है। 

ये भटकाव की स्थिति हमारी नियति ही बनती जा रही है, चूँकि जो सत्ता में है वो हमेशा यही चाहते है की आप इस मुग़ालते में रहे की आप के लिए अप्रासंगिक विषय ही असली महत्व का है। ये पहले भी था और आज भी हो रहा है। हाँ ये ज़रूर है की पहले मीडिया का रोल काफ़ी हद तक सीमित था, पर आज आप उसकी हाथ की कठपुतली मात्र है। भले उस आपरूपी कठपुतली को चलाने वाले और कोई नहीं, वो आप के अपने नेता और पूँजीपति ही है। मगर हम इस समझ से दूर, एक बड़े झूट पर बना उस सच की तलाश में, हर दिन मीडिया की उस जादुई खेल में खोए हैं | हमारा भविष्य भी भगवान राम की तरह,सोने के मृग की तलाश में अपने को भूल, नए पोस्ट ट्रूथ के खोज में है, जिसे अपने जानकी को खो जाने का भय नहीं है। और वो ये भी नहीं जानता है की इस जानकी के खो जाने के बाद कोई हनुमान भी उसकी मदद नहीं कर पायेगा। यही आज की माया है।

(लेखक एक पूर्व प्रशासनिक अधिकारी। उपरोक्त लेखक के निजी विचार हैं।)

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