हिंदी भाषा और नागरी लिपि पर आचार्य विनोबा भावे की मान्यताएँ

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आचार्य विनोबा भावे का जन्म सन १८९५ में हुआ और १९८२ में उन्होंने अंतिम श्वास ली | लगभग नब्बे  वर्ष का जीवन उन्होंने जिया और उसमें भी एक ऐसे अध्यात्मिक व्यक्तित्व की तरह जिसका एक-एक क्षण समाज और राष्ट्र के लिए समर्पित था | प्रायः साधू-संतों का जीवन आध्यात्मिकता पर केन्द्रित हो जाता है और उनकी साधना ब्रह्म या अलौकिक को जानने-समझने में व्यतीत हो जाती है | लेकिन कभी-कभी ऐसे उदाहरण संसार के सामने प्रत्यक्ष होते है जहाँ महात्मा अपनी ऊर्जा केवल आध्यात्मिक अनुभव तक सीमित नही करते बल्कि समाज,राष्ट्र और जगत में उसका विस्तार भी करते है | आचार्य विनोबा भावे का जीवन और कर्तृत्व इसी श्रेणी में आता है | उनकी आध्यात्मिक ऊर्जा केवल निजी साधना के लिए ही नही थी बल्कि वे उसका प्रयोग समाज के बेहतर निर्माण के लिए जीवन पर्यन्त करते रहे और इसी कारण वे भारत और विश्व के इतिहास में अपना विशिष्ट स्थान रखते है |  

सर्वविदित है कि अहिंसा उनका मार्ग था और सबसे अधिक वे भूदान आंदोलन के लिए जाने जाते है जिसके पीछे राष्ट्रीय एकता का दृष्टिकोण काम कर रहा था और यह कहने की आवश्यकता नही है कि यह बहुत बड़ी सामाजिक-आर्थिक क्रांति थी क्योंकि इसमें लगभग 42 लाख एकड़ भूमि का दान हुआ था जिसमें उसके व्यक्तिगत आधिपत्य की समाप्ति और भूमि के ग्रामीण उपयोग पर बल दिया गया था | आज की दुनिया में यदि देखा जाय तो भूमि दान की बात सोचना तो दूर लेकिन इसकी खबरें ही अधिक मिलेंगी कि उस पर कब्जे के लिए गाँव-गाँव में हिंसा की घटनाएँ लगातार बढ़ती चली जा रही हैं और भूमि का जितना व्यवसाय बढ़ गया है उससे अन्य नई संस्कृतियाँ अपना वर्चस्व समाज पर बनाती चली जा रही हैं |

ऐसे में आचार्य विनोबा भावे का क्रांतिकारी भूदान आंदोलन एक भूली बिसरी स्वप्न कथा सरीखा ही लगता है | ध्यान देने की बात यह है कि एक आध्यात्मिक व्यक्तित्व कितना बड़ा शिक्षक और गहरा संप्रेषक है जो अहिंसा के मार्ग पर चलने का व्रत लिए इतना बड़ा ऐतिहासिक आंदोलन खड़ा कर देता है | स्वयं आचार्य विनोबा भावे जी ने अपने जीवन में विश्वास का श्रेय दो बातों को दिया है – एक तो विचार समझाने को और दूसरा प्रेम शक्ति को | वे विचार के बीज बोने को अपना मूल कर्तव्य मानते है और इस पर भरोसा रखते है कि एक दिन वह अवश्य उगेगा | इसके साथ ही वे किसी भी विचार को लादने या दंड की शक्ति से उसे लागू करने में विश्वास नही रखते यह भी स्पष्ट है |  

आचार्य विनोबा भावे की पहली बात का प्रत्यक्ष संबंध उनकी भाषा कि दृष्टि को प्रस्तुत करता है | विचार को यदि समझाना है तो उसके लिए भाषा का संप्रेषण मूल आवश्यकता है | प्रेम की शक्ति का संबंध भी भाषा से इसलिए बनता है क्योंकि विनोबा जी की समझ में वही एक मार्ग है जो सबसे बड़े संप्रेषण को संभव कर सकता है | भाषा इसीलिए उनके चिंतन का बहुत बड़ा विषय है | निश्चित रूप से यह एक बड़े शोध विषय की ओर आकर्षित भी करता है कि आचार्य विनोबा भावे के भूदान आंदोलन में भाषा की क्या भूमिका थी ! इस पर अवश्य विचार होना चाहिए लेकिन फिलहाल यह बात तो स्थापित होती लगती है कि विचार को समझाने की जरुरत और प्रेम से अर्थात बिना हिंसा के समझाने की जरूरत विनोबा जी के संपूर्ण जीवन के प्रयोगों में मूल भूमिका निभाता है |

यदि भूदान आन्दोलन की व्यापकता को देखे तो यह जिज्ञासा बनती है कि आखिर किस तरह विनोबा जी ने अपनी भाषा नीति निर्मित की होगी जिससे यह संभव हो सका | अकारण नही था कि गांधीजी ने १९२१ में वर्धा आश्रम के संचालन के लिए विनोबा जी को वहाँ भेजा था और वे तीस वर्षों तक वहाँ अपनी धुन में रमे रहे | गांधीजी को तो संचार विषय के बड़े से बड़े विद्वान भी लाजवाब संप्रेषक मानते हैं | तो फिर उस व्यक्तित्व का कहना ही क्या जिसे गांधीजी ने आश्रम के संचालन के योग्य और विश्वसनीय माना हो | संप्रेषण और प्रेम की आवश्यकता को विनोबा जी ने सिद्ध कर जैसे गांधीजी के विश्वास को सही साबित कर दिखाया | इसलिए भाषा और लिपि पर विनोबाजी के विचारों पर  यहाँ एक नजर डालने की कोशिश की गयी है |

भाषा को लेकर विनोबाजी ने भारत देश की स्थिति को बहुत अनोखा माना है | उनका कहना था कि यूरोपीय देशों में अलग-अलग भाषाओं के उपयोग के कारण वहाँ देश विभाजित हुए हैं जबकि भारत में भी अनेक भाषाओँ के बावजूद यहाँ की राष्ट्रीयता कभी खण्डित न हो सकी | अर्थात यूरोप में जहाँ भाषाएँ विभाजन करती हैं वहीं भारत में अनेक भाषाओं के बावजूद एक सामासिकता मिलती है | यहाँ आचार्य विनोबा जी भारत के उस अद्भुत सौंदर्य की व्याख्या कर रहे हैं जो अनेकता में एकता के नाम से जानी जाती है | फिर भी राजनीतिक दृष्टि से देखा जाय तो ऐसा नही है कि भाषाओं के प्रयोग का विरोध भारत में उत्तर-दक्षिण में नहीं दिखा लेकिन फिर भी वह इतना सशक्त कभी नही होने पाया कि भारत का विभाजन इस आधार पर करा दे | यह कोई साधारण बात नही है क्योंकि आज जब हम अपना वर्तमान देखते है तो विभिन्न माध्यमों में भारतीय भाषाओं का आदान-प्रदान पहले से न केवल बढ़ा है बल्कि आसान भी हुआ है | हिंदी का संबंध अन्य भारतीय भाषाओं से बेहतर ही हुआ है यदि माध्यमों को देखें तो !

आचार्य विनोबा भावे यूरोपीय भषाओं की तुलना भारतीय भाषाओं से करते हुए कहते है कि भारतीय भाषाएँ अधिक विकसित हैं क्योंकि उनमें दो हजार साल की यात्रा झलकती है | वो ये बात तमिल और कन्नड़ भाषा के उदाहरण से कहते हैं | इनकी तुलना में वे रूस का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि वहाँ पर भी ऐसी भाषाएँ नही है जिन्हें इतना लम्बा समय विकसित होने के लिए मिला हो | इससे आधार पर वे भारत को यूरोप से राजनीतिक दृष्टि से बहुत आगे मानते हैं | लेकिन यहाँ पर वे स्पष्ट कर देते हैं कि उसे अंग्रेजी से बचना होगा अन्यथा वह अपना तटस्थ चरित्र खो देगा | विनोबा जी अंग्रेजी को भारत के विकास के लिए एक बाधा के रूप में देखते हैं |

इसका कारण अवश्य ही उनका ग्रामीणवादी आत्मनिर्भर दृष्टिकोण होगा क्योंकि स्थानीय भाषाओं से ही बेहतरीन संप्रेषण के आदर्श को वे स्वीकार करते थे | इस विषय पर विचार करने पर यह तो स्पष्ट दिखता है कि भारत ने अंग्रेजी को अस्वीकार नही किया और समकालीन ग्लोबल वातावरण में अन्य भाषाओं के साथ उसकी अनिवार्यता समाज में महसूस की जाती है | लेकिन यह भी स्पष्ट है कि आरंभ से अंग्रेजी भी भारतीय समाज में थोपी गयी है जिसके कारण आज भी समाज में उसके विशुद्ध उपयोग संभव नही दिखते| तात्पर्य यह कि भाषा के प्रश्न पर भारतीय समाज बहुत लंबे समय से असमंजस में दिखता है क्योंकि उसे अपनी प्रांतीय भाषा और अंग्रेजी के बीच फंसा हुआ देखा जाता है | तुलना की जाय तो वे देश  भारत की तुलना में अधिक विकसित दिखते हैं जो अपनी भाषा में आज की दुनिया संभव कर पाए हैं| लेकिन समकालीन संदर्भ में आज अंग्रेजी न केवल अनिवार्यता बनाती है बल्कि भारत की  प्रमुख भाषा में से एक है जो अब भारत में अपनी तरह से विकसित हुई है | कई क्षेत्रों जैसे कि उच्च  शिक्षा में बिना अंग्रेजी के काम नहीं चल सकता |

भारत की भाषा के संदर्भ में आचार्य विनोबा भावे जी का मानना है कि यहाँ लोगों को दो भाषाओं की जरूरत ठीक वैसे ही है जैसे मनुष्य को दो आँखों की होती है | इनमें से एक भाषा प्रांतीय है और दूसरी राष्ट्रीय | इसके साथ ही वे अपना यह विश्वास प्रकट करते हैं कि हिंदी ही भारत के संदर्भ में वह भाषा है जिसका उपयोग दिन-प्रतिदिन देश में बढेगा | वे विशेष रूप से यह भी उल्लेख करते हैं कि दक्षिण भारत में लोग बहुत प्रेम से हिंदी सीखते है | वे हिंदी को भारत की बुनियादी भाषा के रूप में देखते हुए भी विनम्रतापूर्वक यह स्वीकार करते है कि ऐसा कोई दावा नही किया जा सकता है कि वह सबसे सम्पन्न भाषा है | वे हिंदी को एक सम्पन्न भाषा की पुत्री और अन्य संपन्न भाषाओं की बहन मानते हैं | इस संदर्भ में तो यही समझ बनती है कि जब भी हिंदी को औपचारिक रूप से भारत के अहिन्दी भाषाभाषी क्षेत्रों पर लागू करने के प्रयत्न हुए हैं तब हमेशा ही उसका विरोध हुआ है लेकिन जब भी हिंदी आम जनजीवन के रास्ते इन क्षेत्रों में गयी तब हमेशा ही उसको अहिन्दी भाषाभाषी लोगों ने हृदय से स्वीकार किया है | हिंदी अपनी जरूरत और अपना जगह खुद ही बना लेती है और उसका कोई बैर किसी अहिन्दी भाषा से नही दिखता | कबीर के शब्दों में कहे तो भाषा बहता नीर !

इसी संदर्भ को आगे बढाते हुए आचर्य विनोबा भावे अपने लेख ‘भाषा का प्रश्न’ में लिखते हैं –

“अगर हिंदी भाषा का आधार न होता, तो कश्मीर से कन्याकुमारी तक और असम से केरल तक के गाँव-गाँव में जाकर भूदान-ग्रामदान का सन्देश मैं नही पहुँचा सकता था | अगर मैं मराठी लेकर जाता, तो महाराष्ट्र के बाहर का काम न होता | अंग्रेजी भाषा में जाता तो कुछ प्रान्तों में और शहरों  में काम चलता | लेकिन गाँव-गाँव में क्रांति की बात अंग्रजी के द्वारा नही हो सकती थी |”

आचार्य विनोबा भावे के इस कथन से पता लगता है कि भारत के लिए हिंदी का क्या महत्व है ! हिंदी में इतनी क्षमता है कि वह पूरे भारत को एक बंधन में बांधकर रख सकती है लेकिन शर्त यही है कि उसमें जनजीवन के लिए प्रेम का आग्रह हो | हिंदी साहब बनकर खत्म हो जाती है और प्रेमी बनकर शक्ति बन जाती है | आचार्य विनोबा भावे के इसी संदर्भ से यह गलत निष्कर्ष भी निकाला   जा सकता है कि यदि हिंदी नही होती तो उनका क्रांतिकारी भारतीय भूदान आंदोलन संभव नही होता | लेकिन यह सिर्फ एक कोरा दंभ ही होगा |

यहाँ यह समझने की आवश्यकता है कि हिंदी का विकास व्यापक जन आंदोलन से जुड़ा हुआ है और इसी कारण वह लोगों के हृदय में अपनी जगह बनाती है | यह बहुमूल्य सूत्र आचार्य विनोबा जी के प्रयोगों और संधान का प्रतिफल है | इसी चिंतन को आगे बढ़ाते हुए वे लिखते है कि हिंदी का प्रचार ऐसा होना चाहिए कि वह किसी पर थोपी न जाए और बोलने वाले को अपनी स्वाभाविक भाषा लगे | इसके साथ ही वे यह आग्रह करते हैं कि हिंदी के अलावा भी एकाध भाषा यथासंभव सीखना चाहिए,विशेषकर उत्तर भारतीयों से उनका आग्रह है कि उन्हें दक्षिण के प्रति अपने प्रेम को बनाये रखना चाहिए |

वे इस पर विशिष्ट बल देते है कि दक्षिण की भाषाओं का साहित्य बहुत अनमोल है जिसके बारे में सारे भारत में प्रचार होना चाहिए | आचार्य विनोबा जी की यह दृष्टि वास्तव में देखी जाय तो भारत की आंतरिक एकता को और अधिक जीवंत बनाने का सूत्र है | यह अपने समय का एक ऐसा अद्भुत प्रयोग है जो यदि सफल हो जाए तो अंतर्सांस्कृतिक समेकन की स्थिति ला सकता था | यह उनके समय से बहुत आगे कि सोच है जहाँ भविष्य प्रांतीय और खण्डित परिस्थितियों से उपजी समस्याओं को संभवतः बेहतर तरीके से सुलझा सकता था | आज भी देखे तो इसके बहुत से उदाहरण मिल जाते है जहाँ पलायन और विभाजन के कारण भारतीय समाज में कई बार वैषम्य की स्थिति दिखती है लेकिन विनोबा जी ने तो स्वयं अपने समय में भूदान आंदोलन का अखिल भारतीय प्रयोग सफल कर दिखाया था | इसके लिए वे अखिल भारतीय भाषा की संकल्पना करते है |

भाषा के साथ ही आचार्य विनोबा भावे ने नागरी लिपि पर भी पर्याप्त सूत्र दिए है जिन्हें एक बार जानने की आवश्यकता है | वे एक अनोखा प्रस्ताव रखते है कि ‘नागरी लिपि’ में हिंदी के अतिरिक्त भारत की अन्य भाषाओं को भी लिखा जाना चाहिए | लेकिन इस प्रयोग से उनका यह तात्पर्य नही है कि हिंदी से अलग भाषाएँ अपनी-अपनी लिपियाँ त्याग देंगी | बल्कि उनका यह आग्रह है कि उन भाषाओं के लिए दो लिपियों का प्रावधान करना चाहिए | यहाँ पर वे एक स्पष्टीकरण यह भी देते है कि इस कथन का आशय यह नही है कि नागरी लिपि अन्य भारतीय लिपियों से श्रेष्ठ है | वे मानते है कि उसमें सुधार की आवश्यकता है | लेकिन उनकी मांग है कि पहले उसे स्वीकार किया जाय तब उसमें सुधार किया जाय | वे मानते है कि हिंदीतर भाषाओं को नागरी लिपि में लिखने का यह लाभ होगा कि उन्हें सीखने में बहुत मदद मिलेगी और उससे भारत की एकता समृद्ध होगी | इस प्रयोग को लेकर वे बहुत आशान्वित दिखते है क्योंकि वे मानते है तब नागरी लिपि भारत के बाहर भी अपनी उपयोगिता बढ़ा लेगी | ध्यान रहे कि आचार्य विनोबा भावे नागरी को अतिरिक्त लिपि के रूप में प्रस्तावित कर रहे है और कही भी उनका यह आग्रह नही है कि हिंदीतर भाषाओं को उनकी अपनी लिपि में न लिखा जाय | यह भी उनकी दूरदृष्टि ही है क्योंकि लिपि के माध्यम से वे देश की एकता और अखंडता को अक्षुण्ण बनाये रखने का एक महत्वपूर्ण सूत्र दे रहे हैं | 

जाहिर है कि उनकी ये मान्यता भी अन्य की तरह भारत में लागू नही हो पाई लेकिन आज प्रौद्योगिकी के युग में यही बात रोमन लिपि ने साबित कर दी है | सोशल मीडिया में आज हिंदी और अन्य भारतीय भाषाएँ जितनी मध्य और युवा वर्ग के द्वारा रोमन लिपि में लिखी जाती है उतनी नागरी लिपि या अन्य भारतीय लिपियों में नहीं | यह अलग से एक अध्ययन का विषय बनता है कि भारत में तकनीक और लिपि का कैसा संबंध बनता है | परन्तु कल्पना की जाय कि यदि आचार्य विनोबा भावे जी की यह मान्यता भी लागू हो जाती तो शायद भारतीय लिपियों के संरक्षण की अधिक संभावना होती |  

आचार्य विनोबा भावे के चिंतन ने एक महत्वपूर्ण प्रयोग का अवसर दिया था कि भाषा के द्वारा भारत कि एकता के सूत्र को सशक्त किया जा सकता था | यह उस समय के लोगों पर निर्भर था कि इस अवसर का वे कैसा लाभ उठाते | जाहिर है कि चिंतन के स्तर पर यह अवसर बना था और उसका लाभ हमारी पिछली पीढ़ियाँ नहीं उठा पाई | अब तो यही कहा जा सकता है कि वह एक ऐतिहासिक और अभूतपूर्व अवसर था क्योंकि अब स्थितियां पूरी तरह बदल चुकी हैं | लेकिन यह सत्य है कि आचार्य विनोबा भावे भी विश्व के एक अभूतपूर्व गांधीवादी व्यक्तित्व थे | उन्हें और उनके विचारों को सादर नमन !

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में सह प्राध्यापक हैं और एक हिन्दीसेवी परिवार से आते हैं। फ़ेसबूक से साभार)

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