उदार पूँजीवादी व्यवस्था जिसकी रचना मुक्त बाज़ार पर आधारित है, हमारे देश में यह आर्थिक संरचना, श्री नरसिम्हाराव और श्री मनमोहन सिंह जी की सरकार ने १९९१ ने अपनाया था। कारण तो स्पष्टतः हमारी जर्जर होती अर्थव्यवस्था थी, जो की समाजवाद और पूंजीवाद की मिश्रित आर्थिक नीति पर आधारित था। अब यह जर्जर होती अर्थव्यवस्था के कारण तो बहुत सारे थे, परंतु आर्थिक दृष्टि से इससे बचने के लिए हमारे राजनायकों को उदार पूंजीवाद शायद सबसे बेहतर रास्ता समझ आया, और हम उस रास्ते पर चल पड़े। परंतु क्या हम लोगों ने गम्भीर रूप से इस बात को सोचने की कोशिश की, कि आख़िर मिश्रित अर्थव्यवस्था की आर्थिक नीति में क्या ख़राबी थी, जो हम आर्थिक तौर पर जर्जर हो गए? शायद हम लोगों को आर्थिक गाड़ी बदलना ठीक लगा, पर हम लोगों ने गाड़ी चला कौन रहा है और चलाने वालों को बदलने का नहीं सोचा। सोचने की बात ये भी है की श्री मनमोहन सिंह जी, जिनका मैं खुद भी एक मुरीद भी हूँ, वो भी उसी चालक दल के सदस्य थे, जो उस समय तक इस आर्थिक वाहन को चला रहे थे।
कभी ग़ौर से सोचे तो यह लगता है की ये नयी गाड़ी या नए रास्ते पर चलने की सलाह कहाँ से आयी, जबकि हम लोगों ने पुराने चालक के बारे में कभी सोचा ही नहीं। या ऐसा तो नहीं की ये पुराने चालक अपनी नाकामियों को छुपाने के लिए, इस नयी गाड़ी और नए रास्तों की वकालत कर रहे थे और हम जैसे अंधे उनकी बात को मानते हुए, अपनी पुरानी जमा पूँजी बेच कर, एक नयी गाड़ी में बैठ, ये नए अंधे रास्ते पर, उन्ही ड्राइवर और चालक के हाथ गाड़ी दे कर चल पड़े। वो चालक और ड्राइवर तो आज भी आपके लिए नयी गाड़ी चला रहे है, पर क्या आप सच में प्रगति के पथ पर तेज़ी से आगे बढ़ रहे हैं, या आपको केवल ये तेज़ी इस लिए दिख रही है की आपको इस नयी सूचना और मीडिया की दुनिया में वैसे ही दिखाया जा रहा है जो चालक आपको दिखाना चाहता है ।
उदाहरण के तौर पर अगर आपको एक सामान्य धीमी गति की फ़िल्म दिखायी जाए तो शायद आप जल्दी बोर हो जाएँगे और शायद आप उस फ़िल्म की तह में जा उसकी बारीकियों को समझने की कोशिश करेंगे। इन दोनो परिस्थितियों में फ़िल्म बनाने, चलाने और बेचने वालों को ये ख़तरा हो सकता है की आप सच समझ जाए और इस फ़िल्म और उसके निर्देशक और निर्माता को सरासर ख़ारिज कर दे। अब यह स्थिति तो किसी भी चालक, निर्माता और निर्देशक के लिए सहन होने के लायक़ नहीं है। उस पर से जब वो पिछले ७३ साल से आपके भाग्य, आपकी परिस्थिति और आपके आने वालों पीढ़ियों के भाग्य विधाता रहे हैं।
अब दूसरे तरफ़ एक ऐसी फ़िल्म में आपको बैठा दिया जाये जो आपको सामान्य गति से नहीं बल्कि कंप्यूटर की भाषा में फ़ास्ट फ़ॉर्वर्ड की गति से दिखायी जाती है। ऐसी फ़िल्मों को शायद आप समझ नहीं पाएँगे परंतु आपको इन फ़िल्मों में गति, एक जोश, एक उत्साह नज़र आएगा जो आपको इस फ़िल्म के साथ जोड़े रखेगी। आपको लगने लगता है कुछ तो हो रहा है और पीछे से लगातार बजने वाली ताली इस बात की गवाही देते रहती है की कुछ अच्छा ही हो रहा है। अब चालक, निर्माता और निर्देशक सबके लिए यह वो स्थिति है जिस पर वो आपको सदा रखना चाहते है।
पर ये चालक, निर्माता, निर्देशक और पीछे से ताली बजाने वाले है कौन? ये तो पहले भी थे और आज भी है। ये आपके अपने नौकरशाह, पूँजीपति, नेता और आज के मीडिया है, जिसमें ज़्यादा ताली के लिए सोशल मीडिया बखूबी प्रयोग में लाया जाता है। आप उसी दिमाग़ के ग़रीबी के दलदल में है जहां ये सारे आपको हमेशा रखना चाहते हैं। ये यह नहीं चाहते की आप कुछ देखे और समझे, ये केवल ये चाहते है की आप इस शोरगुल को सुनते रहे और इसी को अपनी प्रगति समझते रहे।
अब इस शोर गुल का एक उदाहरण आप अभी हाल में नौकरशाही में आमूल चूल परिवर्तन की तरह ‘मिशन क़र्मयोगी’ का आना देखिए। अब इस मिशन को बनाया कौन, वही नौकरशाह जो हमारे २५-३० साल से चालक हैं। “मिशन कर्मयोगी का लक्ष्य भविष्य के लिए भारतीय सिविल सेवक को अधिक रचनात्मक, कल्पनाशील, सक्रिय, पेशेवर, प्रगतिशील, ऊर्जावान, सक्षम, पारदर्शी और प्रौद्योगिकी-सक्षम बनाकर तैयार करना है” , और इस ‘मिशन कर्मयोगी’ के तहत सारे सरकारी सेवकों को लगातार नये नये प्रशिक्षण दिए जाएँगे। अगर आप तो सरकारी कर्मचारी है नहीं तो शायद आपको लगे की ये कुछ नया हो रहा है जिससे आपकी जैसी भोली जनता का कुछ भला होगा। उन्हें कहाँ पता है की आज भी अपने ३० साल के नौकरी में एक भाप्रसे के अधिकारी कम से कम ३० नये प्रशिक्षण प्राप्त करते है जिसमें कुछ तो साल-साल भर अमेरिका के हॉर्वर्ड और कुछ इंगलैंड के ऑक्स्फ़र्ड और कैम्ब्रिज से लम्बे लम्बे प्रशिक्षण प्राप्त कर आते है। अगर नीचे के तबके के भी अधिकारियों के प्रशिक्षण का वर्णन आप देखेंगे तो पता चलेगा की उन्होंने भी कोई ऐसी प्रशिक्षण नहीं है जो उन्होंने नहीं किया है। इन सारे प्रशिक्षणों के बाद भी इनकी क्या हालत है ये आप जानते ही है।अब कौन सा नया प्रशिक्षण लगाया जा रहा है जिसे प्रधान सेवक भी नौकरशाही में मूल चूल परिवर्तन कह रहे है ?
लेकिन हमें इससे क्या लेना की यही चालक है जो पहले भी आपको डूबा चुके हैं और कोई भी नयी गाड़ी और नये रास्ते पर चलने से ये आपको आपकी मंज़िल तक नहीं ले जा सकते। यहाँ तो चालक और अपनी मंज़िल दोनो दो है। आप ग़रीबी, भुखमरी, निरक्षरता, बीमारी से दूर भाई चारे की दुनिया में जीना चाहतें हैं और वो अपने आपको उनकी मंज़िल जो शासन और शासक वर्ग का शीर्ष है, वहाँ पहुँचना चाहते है। अब इस खेल में निर्माता और निर्देशक का साथ उनके लिए अनिवार्य है और यही अनिवार्यता इन तीनो पक्ष को एक साथ रखती है। आप जिनके लिए ये बनाए गए है, वो केवल स्टेडीयम में बैठी दर्शक की तरह है, जिसका काम पीछे से मीडिया के ताली में ताली बजाने और पाँच साल में एक बार वोट देने से ज़्यादा नहीं रह गया है। अभी भी अगर आपको इन पर भरोसा है तो इंतेज़ार कीजिए जिस दिन ये आपको हरिधाम पहुँचा कर फिर से एक नयी गाड़ी और नए रास्ते पर आपको के चलने की मशविरा देंगे और आप ख़ुशी ख़ुशी उस पर चल पड़ेंगे, जैसे आज आप चल रहे हैं।
(लेखक अवकाशप्राप्त अर्धसैन्य बल पदाधिकारी हैं)