नपुंसक समाज के ढोंग

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आज कल तो लगता है की हमारे ढोंग हमारे दिमाग़ के ऊपर ही हावी हो चले है और हम उसे सच ही समझ बैठे हैं। घर बैठे दुनिया बदल देने का हठ, या टीवी की दुनिया में जा कर चीन की टोंटी दबा देने का ग़रूर, यह एक ऐसे नपुंसक समाज का ढोंग सा हो चला है, जो आज तक अपने घर की बहु बेटियों को एक सुरक्षित वातावरण नहीं दे पाया है, पर वो छाती पिटते हुए अपनी गाथा में हर समय लगा हुआ है। एक ऐसा नपुंसक समाज जो आज केवल प्रजातंत्र के बिसात पर अपने गिनती में ज़्यादा होने के कारण, अपने खोखलेपन से आँखे छुपाए, शूतरमुर्ग के तरह अपने सर को छुपाये, अपनी वीरगाथा के ढिंढोरे पिटने में लगा है।

मैं यह भी मानता हूँ की यह सामाजिक समस्या, राजनैतिक विषय नहीं है और इसका उत्तर कोई राजनैतिक विचारधारा और कोई राजनैतिक दल है। यह एक ऐसा समाज है जो पूरी तरह से मानवता और आज के समय संदर्भ की नैतिकता से भी दूर खड़ा है। उसे तो ये भी नहीं पता है एक माँ-बाप का दर्द उससे उसकी बच्ची का एक भयावह परिस्थिति में बिछड़ने का कैसे होता होगा, जब उन्हें अपनी बच्ची को आख़री बार देखने की इजाज़त इस बात पर नहीं दी जाती है की इसका फ़ायदा राजनैतिक कारण से और मीडिया के गिद्ध अपने हर दिन के टीआरपी कारण से कर सकते है। अब इस परिस्थिति में ग़लत कौन है, यह मेरी समझ से तो बाहर है । 

वैसे मैं कोई इस बात का पक्षधर नहीं हूँ की इस विषय का कोई राजनैतिक समाधान है। राजनीति तो केवल हमारे समाज का एक प्रतिबिंब मात्र है, अतः यह कहना की कोई दूसरी सरकार होती तो शायद हम बेहतर होते, मैं तो नहीं मानता। पर मैं यह ज़रूर मानता हूँ की आप आइने में जो देखते है, वो आप केवल सामने से देखते है, जबकि उस अक्श का एक पीछे का हिस्सा आप कभी देख नहीं पाते है। यह पीछे का हिस्सा कितना भयावह हो सकता है, यह शायद हमारे दिमाग़ में जाता नहीं है। वो हिस्सा हमारी वर्ण और जातिगत व्यवस्था है, जो हर समय हमारे समाज का नंगा सत्य आपको दिखा रहा है। 

राजनीति केवल इस वर्ण और जातिगत  समस्याओं को हर वक्त बदले तरीक़ों से अपने फ़ायदे के लिए उपयोग में लाता रहा है।पहले ऊपर के जातियों का समीकरण, फिर मंडल आयोग के ज़रिए बीच के वर्गों का बोलबाला और आज का मनुवादी प्रयोग, ये सारे कहीं ना कहीं उसी जातिगत राजनीति का हिस्सा है जिसमें हमारी बहु-बेटियाँ पिस कर रह गई है।यहाँ जिस भी जातिगत समीकरण का बोलबाला हो परंतु स्त्री समाज की स्थिति वही है। केवल फ़र्क़ उस वक्त के प्रबल जाति विशेष पर दिखता है। पर इसका मतलब यह नहीं है की उस वक्त उस जाति के महिलाओं पर अत्याचार नहीं हो रहे होंगे। वो उस वक्त भी उतनी ही शोषित होगी जितना पहले हो रही होंगी, पर उस वक्त उनके जाति के पुरुष उस गुमान में की आज उनकी जाति प्रबल है, उन सभी बुराइयों पर पर्दा डालने में लगे रहते है। आख़िर अपना शासन है, हम अपने ही शासन की बुराई क्यूँ बतायें?

घर में बैठे बैठे कभी मुझे अपनी एकलौती बेटी से उसके अपने अनुभवों पर बहस हो जाती है, जो समाज के उस तबके से संबंध रखती है जो मुझसे हर हालत में बेहतर समझदारी रखती है। जब वो मुझे बताती है स्त्री या लड़की होने की परिस्थिति को मैं समझ ही नहीं सकता हूँ चूँकि मैं एक पुरुष हूँ, कभी मुझे ये अजब लगता था। भई, मैं पढ़ा लिखा, एक खुले विचार वाला, संवेदनशील व्यक्ति हूँ, तो मैं ये क्यूँ नहीं समझ सकता? पर एक दिन रोड के चौराहे पर एक हिज़ड़े को दिखाते मेरी बेटी ने पूछा की क्या मैं इस हिजड़े के साथ बीतने वाले अनुभवों को समझ सकता हूँ, या क्या मैं इसकी हर दिन की परिस्थिति को जान सकता हूँ? शायद मेरा जवाब नहीं था। औरतों की परिस्थिति में भी शायद हमारे समाज का जवाब ‘नहीं’ है। यही कारण है की हमारे यहाँ हर १५ मिनट पर एक बलात्कार का केस होता है और हमारी नपुंशकता इसे पूरे उत्साह से जश्न की तरह मानती है ।

जब हर बार ये जश्न की तरह ही मनाना है, तो ये सारे ढोंग किस बात का है। कल कोई टीवी में वहाँ के कलेक्टर और पुलिस के आला अधिकारियों के वक्तव्य दिखाए जा रहे थे। मुझे उनके व्यक्तव्यो से कोई शिकायत नहीं है। मुझे केवल नौकरशाही के उस संवेदनहीनता से सवाल है की अगर यही आपके अपने बच्चे के साथ होता तो क्या आप यही करते? मुझे इससे भी कोई शिकायत नहीं है की किसी पार्टी के नेता जो ऐसे वक्त पर केवल अपनी राजनैतिक रोटियाँ सेकने चले आते है, उनको आपने जाने से रोक दिया। पर मुझे इस बात में इस नौकरशाही की नपुंसकता झलकती है जब कोई किसी दल के प्रतिनिधि ऐसे कुकर्म में लिप्त होते है और आप आँख दूसरे तरफ़ फेर लेते है। उन्नाव केस को अभी ज़्यादा दिन नहीं हुआ है, और आज भी हमारे सरकारी अधिकारी काम के बदले राजनैतिक तुष्टिकरण में ही लगे है। 

यह नपुंशक नौकरशाही ही ये बताता है की आज समाज की क्या परिस्थिति है। नौकरशाह समाज का वह वर्ग है जो सरकार की संवैधानिक शक्तियों से परिपूर्ण है। अगर वही वर्ग आज निपुंशक और अशक्त है, तो आप समझ सकते है की बाक़ी समाज की क्या स्थिति होगी। ये नौकरशाही की नपुंसकता ही साबित करती है की आज का समाज और इसका सीधा मतलब हम कितने नपुंशक हैं। ।

(लेखक एक पूर्व प्रशासनिक अधिकारी। उपरोक्त लेखक के निजी विचार हैं।)

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