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कल के मुग़ल और आज के हम

कभी कभी कुछ चीजें हमारे ज़हन में बचपन से बैठ जाती है। ये अच्छा है , वो ख़राब है, वो ठीक है, ये ग़लत है, वो हमारे दोस्त है और ये दुश्मन है। बचपन में हमारे दिमाग़ में डाली वो बातें हमें हमेशा सच ही लगती है और बड़े होने के बाद वही बातें हमारे लिए यथार्थ की वो धरातल होती है जिसपर हम अपने सोच की फ़सल को लगाते हैं। अब अगर वो धरातल हमारे नुमाइंदों की हो तो शायद नयी सोच की सारी फ़सल भी उसी चश्मे से देखी जायेगी। यह मुग़ल बनाम हम भी शायद उसी धरातल से उपजी फ़सल है जिसे हम सियासत की बाज़ार में हर दिन ख़रीद और बेच रहे हैं। 

किसी जमाने में मैं ने बंकिमचंद्र चैटर्जी की महान रचना आनंद मठ पढ़ा था। अब वो बचपन के दिन थे इसलिए मुझे किताब में लिखे अक्षर तो समझ में आ गए थे परंतु किताब की भीतर का छुपे भाव को शायद नहीं समझ पाया। बड़े होने पर गुरुओं ने आनंद मठ का महत्व मुझे राजनैतिक और सामाजिक दृष्टि से भी समझाया जिसमें उस समय के बंगाल में मुस्लिम शासकों का पतन, समाज के नैतिक चरित्र की गिरावट, सन्यासी विद्रोह और अंग्रेज़ी साम्राज्य की दस्तक सभी शामिल थे।

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हिंदी भाषा और नागरी लिपि पर आचार्य विनोबा भावे की मान्यताएँ

आचार्य विनोबा भावे का जन्म सन १८९५ में हुआ और १९८२ में उन्होंने अंतिम श्वास ली | लगभग नब्बे  वर्ष का जीवन उन्होंने जिया और उसमें भी एक ऐसे अध्यात्मिक व्यक्तित्व की तरह जिसका एक-एक क्षण समाज और राष्ट्र के लिए समर्पित था | प्रायः साधू-संतों का जीवन आध्यात्मिकता पर केन्द्रित हो जाता है और उनकी साधना ब्रह्म या अलौकिक को जानने-समझने में व्यतीत हो जाती है | लेकिन कभी-कभी ऐसे उदाहरण संसार के सामने प्रत्यक्ष होते है जहाँ महात्मा अपनी ऊर्जा केवल आध्यात्मिक अनुभव तक सीमित नही करते बल्कि समाज,राष्ट्र और जगत में उसका विस्तार भी करते है | आचार्य विनोबा भावे का जीवन और कर्तृत्व इसी श्रेणी में आता है | उनकी आध्यात्मिक ऊर्जा केवल निजी साधना के लिए ही नही थी बल्कि वे उसका प्रयोग समाज के बेहतर निर्माण के लिए जीवन पर्यन्त करते रहे और इसी कारण वे भारत और विश्व के इतिहास में अपना विशिष्ट स्थान रखते है |  

सर्वविदित है कि अहिंसा उनका मार्ग था और सबसे अधिक वे भूदान आंदोलन के लिए जाने जाते है जिसके पीछे राष्ट्रीय एकता का दृष्टिकोण काम कर रहा था और यह कहने की आवश्यकता नही है कि यह बहुत बड़ी सामाजिक-आर्थिक क्रांति थी क्योंकि इसमें लगभग 42 लाख एकड़ भूमि का दान हुआ था जिसमें उसके व्यक्तिगत आधिपत्य की समाप्ति और भूमि के ग्रामीण उपयोग पर बल दिया गया था | आज की दुनिया में यदि देखा जाय तो भूमि दान की बात सोचना तो दूर लेकिन इसकी खबरें ही अधिक मिलेंगी कि उस पर कब्जे के लिए गाँव-गाँव में हिंसा की घटनाएँ लगातार बढ़ती चली जा रही हैं और भूमि का जितना व्यवसाय बढ़ गया है उससे अन्य नई संस्कृतियाँ अपना वर्चस्व समाज पर बनाती चली जा रही हैं |

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पूँजीवाद व्यवस्था और लोकलुभावनवाद के बीच भारतीय राजनीति

यह एक सत्य है कि हमारी आज़ादी के बाद की राजनीति, १९९० तक उदार समाजवाद के इर्द गिर्द घूमती रही थी। शुरू के दशकों में मिश्रित अर्थव्यव्स्था की स्थापना के साथ हमारी अर्थव्यवस्था समाजवाद और पूंजीवाद के बीच सामंजस्य बनाने की कोशिश में एक हद तक सफल भी रहा, जिसमें हमारे यहाँ बेधड़क पूंजीवाद पर काफ़ी हद तक लगाम भी लगा रहा। परंतु यह हमारी अर्थव्यवस्था को बढ़ने पर भी रोक लगाए रखा और वो हिंदू ग्रोथ रेट से हमें कभी आगे जाने नहीं दिया। इसके साथ ही यह नयी टेक्नॉलजी पर अंकुश,पूँजी की कमी और इन्स्पेक्टर राज तथा भ्रष्टाचार के दीमक के रूप में हमारे अर्थव्यवस्था को कुंठित करता रहा। ७० के दशक के साथ ही इस पुरानी अर्थव्यव्स्था की कमज़ोरियाँ खुल कर सामने आने लगी। इन कमज़ोरियों का राजनीतिक मुखड़ा, ग़रीबी हटाओ के नारे, साधनो का राष्ट्रीयकरण, आपातकाल और अराजकतावाद के रूप में भी हम लोगों ने देखा।

आर्थिक रूप से इन सारी बातों को इस तरह भी समझा जा सकता है की प्रारम्भ की स्थिति में जब अर्थव्यवस्था के स्तर पर हम मिश्रित अर्थव्यवस्था को मुख्य आर्थिक नीति की तरह देखते थे, तब उदार समाजवाद, उस अर्थव्यवस्था का सामाजिक पहलू था, जिसके ज़रिए सामाजिक धन या सामाजिक साधनों का समाज के सारे वर्गों के बीच विकेंद्रीकरण किया जाता था । पीडीएस, नियंत्रित अर्थव्यव्स्था और सरकार का सारे अर्थव्यव्स्था में सीधी भागीदारी, सामाजिक साधन के विकेंद्रीकरण का सबसे सीधा और कारगर तरीक़ा माना जाता था। परंतु यह भी सत्य है की ये तरीक़े हमारे समाज के सबसे नीचे तबकों के लिए बहुत फ़ायदेमंद भी नहीं साबित हुआ। इसके अलावा यह राष्ट्र की अर्थव्यवस्था को अंत में उस जर्जर स्थिति तक ला खड़ा किया जहां से उसी समाजवाद के रास्ते पर चलना सम्भव नहीं था।