याद है न, कल दही-चुड़ा है! पता नही, आजकल पटना में लोग दही घर में जमा रहे हैं या डब्बे वाली दही से ही काम चला ले रहे है दही चुड़ा के दिन भी। एक समय होता था, जब खिचड़ी के एक-दो हफ़्ते पहले से ही पटना में दुध बटोरने का कार्य क्रम चालु हो जाता था और बड़े दुख से दुध की बटोरी मात्रा को धीमी आँच पे आधा कर दिया जाता था। उसके बाद उस दुध में 'ज़ोरन' डाल कर कम्बल से ढक कर छोड़ दिया जाता था कम से कम दो दिनों तक। क्या मजाल जो कोई आस पास फटकने की हिम्मत भी कर पाए उस ख़ास पतीले के! शायद किसी के पैरों की कंपन ही 'दुध' को 'दही' न बनने दे। और अगर 'दही' नही अच्छी बनी, तो फिर देखने लायक होती थी, घर की मालकिन का चेहरा, जैसे वो ज़िन्दगी में कितनी बड़ी बाज़ी हार गयीं हों।