हिंदी दिवस हो और मेरा दिल कुछ लिखने को न मचले, ऐसा कतई संभव है क्या? मैं एक हिंदी भाषी प्रदेश से ताल्लुक रखती हूं। ब्याह भी मेरा ठेठ हिंदी भाषी प्रदेश में ही हुआ है। लिहाजा हिंदी से मेरी अनवरत संगत बनी हुई है।
पढ़ाई के वक़्त, मुझे हिंदी में ऑनर्स लेने की इच्छा थी,लेकिन हिंदी में मार्क्स इतने कम आते थे की लोगों की सलाह पर मैंने संस्कृत ले ली, जो हिंदी समेत कई और भाषाओं की जननी कही जाती है। कहने की जरूरत नहीं कि, संस्कृत किसी कठोर मां की तरह ही सख्त थी।
यहां एक बात स्पष्ट करना जरूरी है की हिंदी को पीछे धकेलने में, इसके पुरोधा ही मुख्य रूप से जिम्मेदार रहें हैं, न वो विद्यार्थियों को कम नंबर देकर हतोत्साहित करते, न होनहार बच्चे बिदक कर अन्य भाषाओं का रुख करते।
मेरी हिंदी मंजी हुई थी, इसका बराबर उपयोग कविता, कहानियों में, मैं करती रहती थी, लेकिन ये अफसोस हमेशा बना रहा की हिंदी को वैसा मंच कभी नहीं मिला, जिसकी वो वास्तव में हकदार थी।
लेकिन!!! बीती बातों को पीछे छोड़कर, आगे बढ़ते हुए, मैं यहां स्पष्ट तौर पर कहना चाहूंगी कि विगत कुछ वर्षों में हिंदी के क्षेत्र में बहुत काम हुआ है। एक जबरदस्त उछाल आया है, जिसे देखकर,आजकल मैं फिर से प्रफुल्लित और उत्साहित महसूस करने लग गई हूं।
हिंदी के इस जनजागरण,और उत्थान के पीछे एक अहम योगदान, युवा कवि #कुमारविश्ववास का भी है, जिन्होंने मृतप्राय हिंदी कविता को पुनर्जीवित कर मंच प्रदान किया। ये उन्हीं की देन है कि,अब हिंदी कविता पढ़ने और बोलने वाले को तिरस्कार से नहीं देखा जाता,अपितु लोगों को उसमें बड़ी गहराई और पद लालित्य नजर आने लगा है। यह एक शुभ संकेत है। हिंदी एक समृद्ध भाषा है, इसके खजाने को विश्व पटल पर लुटाने की जरूरत है, फिर तो निराला जी की कविता "देखेगा सारा गांव बंधु!"