#कोरोना, कमरदर्द, अशांत चित, हिन्दी लेखन और राजनैतिक विश्लेषण

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कमर दर्द एक ऐसी परेशानी है जिसके चलते शरीर केवल आराम की अवस्था में ही रहना चाहता है। अब ये हुआ है तो एक आध हफ़्ते तो कष्ट में निकलना ही पड़ेगा। पर पड़े और लेटे रहने में भी दिमाग़ तो आराम करता ही नहीं है और कुछ ना कुछ दिमाग़ी कसरत करता रहता है। इधर कुछ दिनो से फ़ोन के हिंदी फोंट पर लिखने की क़वायद सा करता हूँ क्योंकि सोचता हूँ कि शायद अंग्रेज़ी सीखने की ज़हमत में हम लोग जो सरकारी हिंदी मीडीयम से ही पढ़े, उसके बावजूद हिंदी से काफ़ी दूरी हो गए। अब तो हिंदी में लिखना बिलकुल दूभर सा लगता है।

पर इसके बावजूद कोशिश में क्या जाता है और जब हमारे भा० प्र० से० के लंगोटिया, हमारे केओसुब के रूममेट, हमें झाड़ पर चढ़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ते है। कोई नहीं, कम से कम इसी बहाने आज के लाक्डाउन के जमाने में कुछ पुरानी यादों को हिंदी में ताज़ा तो किया जा सकता है। वो पुराने दिन, जब हमलोगो के पढ़ने के लिए हिंदी ही एक माध्यम था। वो हिंदी पत्रिकाओं और बाल पॉकेट बुक्स से हिंदी की कुछ गम्भीर साहित्यों की दुनिया, जो आज के बोल चाल की अंग्रेज़ी की दुनिया से काफ़ी अलग थी। ज़िन्दगी के ५५ साल के बाद भी आज भी अपनी सोच तो हिंदी में ही आती है और हम उसे अंग्रेज़ी में ट्रैन्स्लेट कर लोगों से बात करते हैं। अब ट्रैन्स्लेशन में भी कमजोर ही है। तो हिंदी में ही कर के देखूँ क्या ??

अब लिखने के लिए तो अपनी रोज़मर्रा की कहानियाँ है या कुछ सीरीयस सामाजिक और राजनीतिक जीवन में बदलते समीकरण। अब आज एक हिंदी में सीरीयस राजनीतिक समीकरण को ही लिखता हूँ...वैसे भी सारे पुराने नौकरशाह की तरह हमें भी इंटेलेक्शूअल होने की ग़लतफ़हमी तो होनी ही चाहिए...और उस पर से राजनीति शास्त्र के पुराने विद्यार्थी...करेला और नीम चढ़ा। कभी छापने भी भेज दूँगा अगर कोई मुल्ला मिल जाएगा। और हाँ, हमारी व्याकरण को ना देखे बल्कि भावना को समझे..वैसे भी ओटो करेक्ट के जमाने में इससे ज़्यादा इस फ़ोन पर हमसे ना हो पायेगा।

संरक्षण की राजनीति बनाम अनुबंध की राजनीति: आधुनिक राजनीति के बदलते आयाम

आधुनिक राजनीति में कई नए तत्व हैं, जो हमारी राजनीति और लोकतंत्र को अधिक जीवंत और दिलचस्प बना रहे हैं। हमारे पुराने राजनीतिक परम्परा में, राजनीतिक संबंध को स्थापित करने के प्रमुख तत्वों में से एक प्रमुख कारण ‘संरक्षण’ (पट्रोनेज़) की राजनीति थी, जो ज्यादातर कांग्रेस युग के दौरान, निजी वफादारी और पारिवारिक संबंधो पर आधारित थी l परन्तु इन संबंधो को आज के राजनीतिक संदर्भ में ‘अनुबंधात्मक’(कोंट्रकचुल) राजनीति में बदल दिया गया है।

यह अनुबंधात्मक राजनीति एक पेशेवर संबंध की तरह विकसित हुआ है जहां व्यक्तिगत निष्ठाओं का महत्व न के बराबर है ।इस बदलाव के युग में भाजपा ने, कई छोटे दलों, प्रभावशाली राजनेताओं और राजनीतिक समूहों के साथ अनुबंधात्मक संबंध बनाने की कला में दक्षता प्राप्त की है।ये सम्बंध किसी ऐसी वैचारिक राजनीति गठबंधन की राजनीति नहीं है जो कुछ वैचारिक मापदंडों पर आधारित हो । बल्कि सभी राजनीतिक दलों के लिए आज के संदर्भ में 'विचारधारा' महज एक मुहावरा सा है, जिसका उपयोग अपने हिसाब से बिना हिचक के किया जा सकता है।

दुर्भाग्यवश, कांग्रेस का नेतृत्व, जो इन बदलावों को समझने में पूरी तरह से विफल रहा है तथा निर्णय लेने के हर महत्वपूर्ण क्षण में इस तरह के बदलाव का सामना करने में सक्षम नहीं हैं। नेहरू-गांधी परिवार अब उस 'बरगद के पेड़' हो चले हैं जिसके निचे और कोई वृक्ष पनप नहीं सकते हैं l जो लोग अभी भी नेहरू-गांधी के पुराने रूपक को राजनीतिक गोंद के रूप में उपयोग करना चाहते हैं, वे राजनीति में कुछ और समय तक और रह सकते हैं, लेकिन ऐसा करके, वे कांग्रेस को एक विचारधारा या आंदोलन या यहां तक कि एक राजनीतिक पार्टी के रूप को ख़त्म कर रहे हैं। दूसरे शब्दों में, वे भाजपा के बार-बार शासन में आने के लिए सबसे अच्छे दांव हैं।

कांग्रेस पिछले 6 सालों में बार बार हार का सामना करने के बावजूद, राजनीती के इन बदलते समीकरणों को समझने में नाकाम हो रही हैI क्या वे यह नहीं समझ पा रहे हैं कि पार्टी के टिकट पर जीतने का मतलब यह नहीं है कि ये राजनेता स्थायी रूप से उनके साथ गठबंधन कर रहे हैं? या कांग्रेस अभी भी ये समझती है की दल विरोधी कानून के डर से उनके साथी उनका साथ नहीं छोड़ पाएँगे ? जबकि दलबदल-विरोधी कानून के पास इन नेताओ को रोकने के लिए कोई दांत नहीं है। अगर हम ग़ौर से देखे तो शायद दल बदल क़ानून हमारे राजनीतिक जीवन में गिरावट का सबसे बड़ा आइना है, जिसके ज़रिए राजनीतिक दलों ने अपने नेता प्रतिनिधीयो पर तो लगाम लगाने की क़ोशिश की, पर अपने समर्थकों को अपने से जुड़े रहने के लिए कुछ भी न करते हुए उन्हें उस हाशिये पर खड़ा कर दिया जहां से वो कही भी जाने के लिए स्वतंत्र है।

इन दलों के शीर्ष नेताओ का ये सोचना की राजनीतिक प्रतिनिधि ही उनके दलों के लिये सबसे ज़रूरी है, ये उनके संकीर्ण सोच का हिस्सा है जिसके चलते इन राजनीतिक दलो के पैदल सैनिक आज उन्हें बार बार मुँह की खाने पर मजबूर कर रहे हैं।इसके अलावा, विपक्षी दलों द्वारा 'लोकतंत्र की हत्या’ की बार-बार की गई कर्कश और बेकार शोरगुल का अनुबंध की राजनीति के युग में कोई मतलब नहीं है, खासकर तब,जब हम जानते हैं कि हर कोई इसी प्रकार के खेल में व्यस्त है। राजनीतिक दलों में अब नेता और उनके समर्थक के बीच के सम्बन्ध अब बराबरी के हो चले है । यदि आप एक सीट जीत सकते हैं, तो दूसरे नेता भी जीत सकते हैं और इसलिए पार्टी के भीतर रिश्ते समान हैं। आपका कद तभी ऊँचा हो सकता है जब आपका नाम मेरे लिए वोट ला सकता हैं ।

लेकिन कांग्रेस में, कोई भी उस कद का नहीं है। एक सुरक्षित सीट के लिए केरल में श्री राहुल गांधी की केरल पलायन, नेहरू-गांधी परिवार के नाम पर वोट आकर्षित करने की क्षमता की प्रतीकात्मक रूप से समाप्ति को बताता है। कांग्रेस के भीतर अभी भी नेहरू-गांधी के नाम को भुनाने की राजनीती केवल पुराने क्षत्रपों की नेतृत्व को नियंत्रित में रखने का तरीका है तथा उस सरंक्षण का फायदा पुराने नेतृत्व द्वारा उठाया जा रहा, जिनका प्रभाव तो राजनीती में है परन्तु वो कांग्रेस को राजनीति की मुख्य धारा से निकाल कर हाशिये पर खड़ा कर दिया है।

वर्तमान राजनीति के संदर्भ में अगर बात करे तो यह जगज़ाहिर है कि जिस किसी को भी राज्य की राजनीति के बारे में थोड़ी समझ है, वह जानता है कि स्थानीय राजनीति के संदर्भ में, श्री अशोक गहलोत या श्री कमलनाथ या कप्तान अमरिंदर सिंह, का जमीनी राजनीति के साथ जुड़ाव उस राज्य के बाकि कम उम्र के राजनेताओं से काफी ज्यादा है । वे, श्री सचिन पायलट या श्री सिंधिया या श्री सिद्धू की तुलना में विभिन्न स्थानीय कांग्रेस धड़ों से निपटने के लिए अपेक्षाकृत बेहतर नेता हैं । वे जन नेता भी हैं और उन्हें अपने समर्थन आधार की नब्ज पर नियंत्रण है। लेकिन वही नेता ये महसूस करने में विफल हैं कि उम्र उनके पक्ष में नहीं है।

इस के कारण उनकी लोकप्रियता के बावज़ूद उनका लगातार शासन के पटल पर बने रहने की कोशिश कांग्रेस के लिए बेहतर नहीं है। इससे बेहतर शायद उनको खुद ही नए लोकप्रिय नेताओं को बढ़ावा देना चाहिए था जो इन पुराने क्षत्रपों को एक नैतिक अधिकार प्रदान करती और कांग्रेस के जड़ो को मजबूत करने में मदद करती। इसके अलावा भी स्वैच्छिक त्याग की राजनीती कांग्रेस को आम जनता के साथ बेहतर संबंध बनाने में मदद करती । लेकिन इसके स्थान पर, हमने देखा है कि सभी पुरानी पहरेदार खुद की कुर्सी गर्म रखते हैं, जिनकी बदलते युवा पीढ़ियों के साथ आत्मीयता और निकटता, दोनो कम है।

अफसोस की बात है कि वर्तमान नेहरू-गांधी पीढ़ी जो 24x7 राजनीति नहीं कर सकती, अपनी योग्यता साबित करने में असफल रही है। उनके लिए उनका अपना जीवन राजनीति से अधिक है और यही तथ्य नेहरू-गांधी राजवंशों सहित किसी भी युवा पारिवारिक राजनेताओं के लिए सबसे बड़ी चुनौती साबित हो रहा है। पुराने राजनेताओ का 24x7 राजनीति और जनता के साथ उनका हर पल का जुड़ाव अभी भी सभी पुराने नेताओ को नए राजनेताओ से अलग करता है।

यह एक महत्वपूर्ण कारण जिसके चलते आज भी बीजेपी को छोड़कर, सारे दलों पर पुराने राजनेता अभी भी हावी हैं। बीजेपी को शायद यह अहसास था की पुराने राजनेता सहानभूति ले सकते है पर नई पीढ़ी के साथ जुड़ने के लिए उन्हें पुराने नेताओ को छोड़ना होगा और उन्होंने साहसपूर्वक सभी पुराने लोगों को रिटायर करने का फैसला किया। राजनीती में पितृपुरुषों के साथ सहानुभूति हो सकती है लेकिन आधुनिक अनुबंधात्मक राजनीति में वे पुरी तरह से अप्रासंगिक हो चुके हैं।

इसलिए आज की राजनीति के संदर्भ में, कांग्रेस द्वारा की जा रही इस तरह की सारी गलतियां बीजेपी के पक्ष में जा रही हैं, जिसने ले दे के एक पेशेवर रिश्ते के आधार पर ‘अनुबंधात्मक राजनीति' का एक नया मॉडल विकसित किया है और जो पुरानी संरक्षण की राजनीति से अलग है, जहां रिश्तेदारी और व्यक्तिगत वफादारी पर आधारित रिश्ते ज्यादा थे। अब, वर्तमान राजनीति की प्रमुख हस्तियों द्वारा भी आकांक्षी राजनेता को शांत नहीं किया जा सकेगा, खास कर अगर ‘अनुबंधात्मक दायित्वों' को एक अपेक्षित समय रेखा में पूरा नहीं किया गया तो।

हाल के दिनों में, उत्तर-पूर्व, गोवा, कर्नाटक, एमपी महाराष्ट्र आदि से सभी बहु-पक्षीय विभाजित राज्य ऐसी अनुबंध की राजनीति के उदाहरण हैं। इन सभी राज्यों में जो राजनेता एक पारस्परिक रूप से सहमत और लाभकारी ’अनुबंध’ के आधार पर गठबंधन का सफलतापूर्वक निर्माण कर रहे हैं, वे शासन कर रहे हैं। कांग्रेस का केंद्रीय नेतृत्व अभी भी इन सामाजिक परिवर्तनों को समझने में असमर्थ है और वे अभी भी राजनीति को पुरानी संरक्षण प्रणाली के स्वरुप में ही देखता हैं, जहाँ रिश्ते को संरक्षक-लाभार्थी मानसिकता द्वारा मापा जाता रहा है ।

पुराने समय में वफादारी, इस सरंक्षण की राजनीती में अहम् भूमिका निभाती थी और ये वो पैमाना था जिसके जरिये राजनीती के पुरस्कारों का वितरण होता था। आज के पुराने कोंग्रेसी नेता इसी परंपरा को जीवित रखने में लगे है। पुराने राजनेताओ और नए कम उम्र के अधीर युवा नेताओ के बीच सत्ता संघर्ष नेहरू-गांधी के नाम के आसपास चल रहा है, लेकिन यह मज़बूत नेहरू-गांधी को नहीं, बल्कि केंद्र में कमजोर नेहरू-गांधी को बनाए रखने और अपने वर्चस्व को बनाए रखने के लिए है कांग्रेस के पुराने राजनेताओ का खेल है जिसमे नेहरू-गांधी नेतृत्व सोशल मीडिया पर मज़ाक का पात्र बन कर रह गया है।

इन्ही बदलते दौर की और एक और कड़ी जो राजनीतिक दलो की आख़री कड़ी है, इस नए राजनीतिक समीकरणों और अनुबंध के खेलों के चलते अब केवल प्यादे जैसे रह गये है, और वो इन दलो के पैदल सैनिकों है, जिनका राजनीतिक भविष्य अंधकारमय है, चाहे वो पुराने कांग्रेसी हों या भाजपा के पैदल सैनिक। आज की राजनीति में ये पैदल सैनिक किसी भी राजनीतिक दलों के लिये ज्यादा जगह नहीं रखते। बेशक जमीनी स्तर के समर्थन में ’संरक्षण’ का एक तत्व है, लेकिन दुर्भाग्य से, इन सिपाहियों में नेता की रुचि सीमित है, जो चुनाव तक ही होती है। इसलिए, इन सैनिकों को पुरस्कार के रूप में छोटे अनुबंध, कुछ छोटे समय के विशेषाधिकार और सीमित मौद्रिक लाभ ही सीमित हैं।

हालाँकि, यदि कोई श्री रामविलास पासवान, श्री रामदास अठावले या श्री सिंधिया की तरह उच्च स्तर के खेल के मैदान में होना चाहता है, तो किसी को अनुबंधित खिलाड़ियों के स्तर तक विकसित होना होगा और तभी उसे राजनीति में वज़नदार खिलाडी के रूप में पहचाना जाएगा। यह हमारे लोकतंत्र और राजनीतिक दलों का बदलता चेहरा है।

आख़िर में एक अन्य प्रमुख पहलू जो राजनीतिक रूपांतरों को बदल रहे हैं, वह सभी राजनीतिक दलों के शीर्ष नेताओं के मूल वैचारिक मूल्यों के प्रचार में रुचि का नहीं लेना हैं। सभी राजनीतिक दलों के बीच आर्थिक विचारधाराओं का समानता, सामाजिक वैचारिक के मूलभूत सिद्धांतो पर ध्यान देने की कमी तथा व्यावहारिक राजनीतिक समाधानों पर ध्यान केंद्रित करना, ये सभी, धीरे-धीरे हमारे देश और राजनीति के नैतिक और वैचारिक परम्परों को बदल रहे हैं। इस मूलभूत वैचारिक गिरावट भारतीय लोकतंत्र को कमजोर कर रही है और सभी विपक्षी दलों को इन नुकसानों के बारे में पता होना चाहिए। यह वैचारिक गिरावट हमारे मूल राजनीतिक ढाँचागत व्यवस्था ‘संविधानिक प्रजातंत्र’ को ‘इलेक्टोरल प्रजातंत्र’ में बदल कर रख दिया है। इस अवसर पर कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं की विफलता ना तो केवल नेहरू-गांधी वंश के लिए ताबूत में अंतिम कील साबित हो रही है, बल्कि हमारे प्रजातंत्र के लिए भी गम्भीर दुर्भाग्य का कारण है ।

(लेखक एक पूर्व प्रशासनिक अधिकारी और संप्रति कोरोना काल समय गहन चिंतन और लेखन में व्यतीत कर रहे हैं)

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