बाबूजी जहां जबरदस्त रामभक्त थे, राम मुझे फूटी आंख नहीं भाते थे। सीता का त्याग, मुझे किसी भी सूरत में उनके निकट नहीं आने देता, इस मामले पर कई बार मेरी बाबूजी से बतकही हो जाती। बाबूजी का कोई भी तर्क मुझे सटीक प्रतीत नहीं होता, मारे चिढ़ के मैंने रामायण पढ़ने की चेष्टा ही नहीं की।
मां को तुलसी कृत रामायण कंठस्थ था। दिनभर वो उसकी चौपाई, किसी न किसी के ऊपर फिट करतीं रहतीं और मैं सुनकर भौंचक रह जाती, उस समय की बात आज के समय में भी इतनी सटीक कैसे?
मां को मैं इसके लिए सादर प्रणाम करतीं हूं क्योंकि उनके राम एक मानवीय किरदार थे, बाबूजी की तरह स्तुत्य कोई दिव्य पुरुष नहीं। यह बातें मिथिला कि हैं जहां कि सीता थी और जहां कि मैं हूँ। उत्तर प्रदेश आईं तो गला मुंह को आ रहा था। जब सीता जी को इन दुष्टों ने नहीं टिकने दिया तो भला मेरी क्या बिसात?
मां की तरह मेरे लिए भी सीता जी एक स्त्री थीं, मिथिला नरेश की दुरालू बेटी। मैं मन ही मन आर्तनाद कर उठी,"मैया!अब तू ही खेवैया! मेरी रक्षा करना!” कहने में कोई गुरेज नहीं की,यहां के लोग,विशेषकर औरतें बहुत ही घातक हैं। खासतौर पर बाहरी स्त्रियों के लिए।
मेरा रास्ता भी सीता जी से कोई कम कठिन नहीं था।भाग्यवशात मैं भी उन सभी गली,कूचों,जंगलों से होकर ,गुजरी, जहां कभी सीता जी के पैर पड़े थे।राम जी पर मेरा क्रोध रह रह कर उफनाता रहा।
चलते चलते मैं अनसूया आश्रम पहुंच गई। वो एकदम गहन वन था। अखाड़े वाले साधु संत वहां विराजमान थे। मेरे साथ मेरी बेटी भी थी। मैं बुरी तरह डरी हुई थी। यहां काफी कुछ देखने,समझने को था। मां अनसूया ने ही सीता को कभी न मैले होने वाले वस्त्र दिए और जंगली फल ,फूल से भोजन पकाना सिखाया।
यहां सीता जी कुछ दिन रहीं थीं। मुझे उनकी उपस्थिति का एहसास भीतर भीतर हो रहा था। यहां की स्त्रियां सीता जी के प्रति बहुत कटु थीं। पर मेरे सास ससुर मुझे स्नेह से सीता जी बुलाते। सास सीता तब बुलाती जब कोई उनके बेटे को मेरे आगे काला कह देता।
पर ससुर जी मेरे संघर्षों को देखकर मुझे सीता जी कहते। राम चन्द्र जी पर मेरा गुस्सा जितना ही अधिक था,लक्ष्मण जी उतने ही मेरे प्रिय होते गए। आखिरकार मैंने लखनपुर(लखनऊ) रहने का फैसला ले लिया। मुझे विश्वास था की, लखन भैया के राज में, मैं और मेरे बच्चे सुरक्षित रहेंगे। मैंने एक जिन्दगी में जैसे पूरी रामायण जी ली।
अब धीरे धीरे मैं मुखर होने लगी। शास्त्र बल से लोगों को पराजित करने लगी। सीता मैया का डंका बजने लगा। राम जी पर चढ़ा मेरा गुस्सा धीरे धीरे पिघलने लगा। राम जन्म भूमि विवादित हो गई। उन्हीं की प्रजा ने उन्हें पॉलिथीन के तिरपाल में रहने को विवश कर दिया। मेरा बदला पूरा हो गया था।
अब जब बिजली चमकती, आंधी पानी आता तो एकान्त में तिरपाल में पड़े बाबूजी के राम, मुझे विचलित कर देते। मैं उठकर बैठ जाती। मेरा मन प्राण कचोटने लगता। जिस लखन और लखनपुर ने, विगत २२-२३ वर्षों से मुझे राज रानी बनाकर रखा हुआ है, उसका भाई पानी में भींग रहा है? और मैं आराम से सो रही हूं?
अब जबकि राम भी जल समाधि ले चुके हैं, मैं ये बदला किससे ले रही हूं? मेरा सर प्रायश्चित में झुक गया,"अपनी अयोध्या को पूर्ववत कर लो,राम!!!"
आज मेरी वह तपस्या पूरी हुई। जगमगाती अयोध्या देखी थी। उसको फिर से जगमगाता देखना, मेरी मन्नत थी। राम सर्वप्रिय हैं, सर्वप्रिय ही रहेंगे। उनके जैसा मर्यादापुरुषोत्तम दूसरा कोई हो ही नहीं सकता। वो बाबूजी के भगवान राम हैंऔर यही सत्य है।
(लेखिका एक समाजसेवी हैं)