पुराने चुनावी फॉर्मूले बदलेंगे और कई मिथक टूटेंगे

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लोक सभा के चुनाव नजदीक आ रहे हैं और चुनावों कि घोषणा कभी भी हो सकती है सभी राजनीतिक दल चुनाव जीतने के लिए अपनी अपनी जुगत में लगे हुए है। देश में नए नारों की भरमार है लेकिन भारतीय राजनीती का सबसे उपयोगी नारा और फार्मूला रहा है मुसलमानो को अपने साथ मिलाकर चुनाव जीतना लेकिन वह आज कि राजनीती में कही खड़ा हो पा रहा है या नहीं?  देश में लम्बे समय से मुसलमान और एक कोई भी बड़ी जाति का गठजोड़ चुनाव जीतने का बीज मंत्र रहा है लेकिन बदली हुई परिस्थितियों में इसमें काफी बदलाव हुए है। 
 
मुस्लिम वोट के महत्त्व पर पहली बार प्रश्न चिन्ह तब लगा जब भारतीय जनता पार्टी ने २०१४ के चुनावों में ८० में से सहयोगीयों के साथ ७३ सीटें जीती और लगभग १७ फीसद मुसलमानों कि जनसँख्या वाले प्रदेश  में एक सीट पर भी मुसलमान दावेदार को नही उतारा। लेकिन ऐसा नहीं था कि जिन सीटों पर भाजपा की हार हुई वहां मुसलमान ज्यादा थे बल्कि ऐसी सभी सीटों पर जहाँ मुसलमानों के संख्या ज्यादा थे भाजपा ने जीत हासिल की यहाँ तक की एकमात्र सीट रामपुर जहां मुसलमान हिन्दुओं से ज्यादा हैं वहां पर भी भाजपा  ने चुनाव जीता कमोवेश यही हाल बिहार का भी रहा।  इन दोनों प्रदेशो में मुसलमानो की जनसँख्या १६-१७ फीसद के आसपास है। 
 
उत्तर प्रदेश और बिहार में मुस्लिम-यादव, मुस्लिम-दलित के तालमेल से चुनाव की हार जीत पहले ही सुनिश्चित हो जाती थी।  गुजरात, राजस्थान, कर्नाटक में मुसलमान किसी एक सशक्त जाति के साथ चुनाव में न केवल सफल होते रहे बल्कि इन राजनितिक दलों से अपनी बात मनवाने में भी सफल रहते थे  लेकिन भारतीय राजनीती में अचानक आये इस बदलाव मे जिसने अगर मुसलमानों को महत्वहीन नही किया तो कम से कम महत्वपूर्ण भी नहीं रहने दिया है।  इसने सीधे तौर पर मुसलमान और एक हिन्दू जाति बनाम अन्य जातियों की राजनीती पर बिराम जरूर लगा दिया है।  समय के बदलाव के साथ चाहे अनचाहे ऐसी जातियां जो धर्म की राजनीती के नाम पर बिफर जाती थी वो इस बात पर भी बिफरने लगी है कि मुसलमान बनाम अन्य होने पर पूरा हिन्दू समुदाय एक साथ खड़ा हो जायेगा। 
 
राजनितिक विश्लेषक ऐसा मानते है कि बिहार में हिंदुत्व के नाम पर ज्यादा मत नहीं पड़ते है बल्कि जाति के नाम पर मत पड़ते है और ऐसा ही हाल उत्तर प्रदेश का है लेकिन जिस तरह से धर्म की राजनीती दुधारी तलवार की तरह काम करती है वैसा ही काम जाति की राजनीती करती है।  उत्तर प्रदेश के  २०१४  और २०१७ के चुनावो ने इस मिथक को तोडा है कि मुसलमाल एकमुश्त वोट करते है बल्कि हिन्दू एकमुश्त वोट करेंगे अगर मुस्लमान ऐसा करेंगे की एक  नई परंपरा की शुरुवात हुई है। 
 
बिहार में हालाँकि मुसलमान अभी भी यादवो के साथ लामबंद नजर आ रहे हैं लेकिन इसका परिणाम यह होगा की बाकी कि जातियाँ अपना अलग रास्ता तलाश करने में लग जाएँगी और ऐसा लगभग उन सभी जगहों पर होगा जहाँ मुसलमान १० फीसद से ज्यादा हैं और एक जाति के साथ जुड़कर दबाव की राजनीति करते रहे हैं। एक और बड़ा बदलाव जो नजर आ रहा है कि इन लोगों पर मुस्लिम धार्मिक गुरुवों के प्रभाव में भी कमी नजर आती है।  जमीअत उलमा इ हिन्द जो हमेशा से कांग्रेस की झंडाबरदार रही है वह कभी समाजवादी पार्टी और उसके एक बड़े धड़ के प्रतिनिधि कभी राष्ट्रीय लोक दल के साथ खड़े नजर आते रहे हैं। 
 
मुसलमानो की एक बड़ी संस्था तब्लीगी जमात लगातार दावा करती रही है कि वह ५० लाख लोगो को जमा करके इज्तेमा का आयोजन कर रही है लेकिंन मुसलमानों पर इनका प्रभाव  नजर नहीं आ रहा है।  मुसलमान नेताओं का यह भी दावा है की उनके प्रतिनिधियों की संख्या लोक सभा और विधान सभा में लगातार काम हो रही है और उनकी आरक्षण की माग लगातार जारी है जिसकी शुरुवात नौकरी से होकर बाद में लोक सभा और विधान सभा में परिणीति होने की बात लगातार होती रही है। इन सब बातों ने न केवल हिन्दुवों को चौकन्ना किया है बल्कि लामबंद भी किया है। 
 
सामाजिक मामलों में समुदाय के लोगों की चुप्पी भी गलत सन्देश देती है जैसे कि तीन तलाक़ पर सामान्य मुसलमानो का चुप हो जाना या विरोध करना, धारा ३७० पर कश्मीर के बाहर के मुसलमानों का इसके विरोध में खड़े हो जाना,  बांग्लादेशी घुशपैठियों पर सहानभूति रखकर सिरे से नकार देना और बाटला हाउस जैसे मुद्दे को भी राजनीती से जोड़ने के कारण देश में एक वर्ग में नाराजगी आई है विशेष रूप से मध्य  में जिसने सोशल मीडिया में भी इसे साझा किया जो एक बड़े वर्ग में ओपिनियन बनाने में कामयाब रहा है । 
 
यही कारण है की कांग्रेस से लेकर समाजवादी पार्टी और अन्य सभी दल न केवल सॉफ्ट हिंदुत्व कि बात कर रहे हैं बल्कि इस बात से भी बचने की कोशिश कर रहे है कि मुस्लिम तुष्टिकरण जैसी छवि लोगों तक नहीं जाए सिवाय पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के जो शायद इस बात से ज्यादा आश्वस्त है कि पश्चिम बंगाल का मतदाता उत्तर प्रदेश और बिहार की तरह मतदान नहीं करता बल्कि संख्या भी ज्यादा है लेकिन वहां पर हो रहे बदलाव ने उन्हें भी चिंता में डाल  दिया है और यही वजह है कि वह भाजपा पर लगातार सख्ती कर रही हैं।    
 
लेकिन इन सब बहस और तर्कों के बीच लोगों ने इस तर्क को न केवल नकार दिया है बल्कि इसके खिलाफ खड़े हो गए है कि मुसलमान मत अब एकमुश्त रहेगा लेकिन अगर देश की परिष्थितियो पर नजर डालें तो एक मुस्लिम मतदाता एकमुश्त मत नहीं डालेगा और अगर इस तरह की परिस्थिति बनी भी तो हिन्दू मत भी एकमुश्त हो जायेगा और यही अखिलेश, मायावती, राहुल, ममता, देव गौड़ा और लालू जैसे नेताओं की चिंता का सबब बन गया है।  यही कारण  है की सभी राजनितिक दल बहुत फूक फूक कर कदम रख रहे है क्योंकि चुनावी मौसम में एक भी गलती सभी का चुनावी गणित बिगाड़ सकती है। यही वजह है कि न केवल कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी मंदिरों के चक्कर लगा रहे है बल्कि समाजवादी पार्टी के वर्तमान मुखिया कुंभ में गंगा घाट पहुंच गए। 
 
दूसरी तरफ अगर भाजपा सिर्फ मुस्लिम महिला और मुस्लिम पुरुष का भेद पैदा करने  कामयाब होती है तो उसकी यह एक बड़ी सफलता होगी।  शिया मुसलमानो का एक बड़ा वर्ग भाजपा से जुड़ा रहा है और इस बात की सम्भावना मात्र कि भाजपा को कुछ मत जा सकते हैं वहां खलबली मचने के लिए काफी हैं।  भाजपा एक और नैरेटिव बनाने में जुटी है कि कांग्रेस और उस जैसी राजनितिक दल कि कोशिश है बालाकोट में भारतीय वायु सेना के आक्रमण पर संशय खड़ा करके अल्पसंख्यक मतों को अपनी तरफ लुभाना है लेकिन इस कोशिश पूरी कौम कि निष्ठा पर प्रश्नचिंह लगाया  रहा है।  इस बात  तेजी से भाजपा प्रसारित कर सकती है और बार फिर चुनावी लड़ाई परसेप्शन  लड़ने के लिए चौसर सजने लगे हैं। लेकिन एक बात तय है इस चुनावों में कई मिथक टूटेंगे। 

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