रिक्शों का कोई जबाब आज भी नहीं

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मुझे रिक्शे बचपन से ही बहुत भाते हैं। उसके कोई कारण हैं। पहला, आप कुछ ढंग से देख पाते हैं अगर कुछ देखना चाहें तो, दुसरा, अगर आप सोचना चाहते हैं कुछ ख़ास विषय पे तो वो भी कर सकते हैं खुली हवा में सॉंस भरते हुए, और तीसरा कारण, आप सारे शहर की सोच भी पता कर सकते हैं रिक्शावाले से थोड़ी बातचीत करके। हमें महीं लगता है कि किसी और सवारी में सवार होकर आप कम समय में इतना फ़ायदा उठा सकते हैं। हाँ, एक बात सच है कि और सवारियाँ आपको अपकी झुठी मंज़िल पे मिनटों में अवश्य पहुँचा देंगीं। सोच के मैं बहुत दुखी होती हुँ कि ये सवारी अब विलुप्त होने के कगार पे जा चुकी है, छोटे-छोटे शहरों में भी।

 

चलिए कहानी के दुसरे पहलुओं पर आज। मैं चण्डीगढ़ कुछ दिनों के लिए रुकी थी अपने भारत-यात्रा के दौरान। आख़िरी दिन मैं मिठाई ख़रीदने पैदल ही पास के एक बाज़ार में गई। मिठाइयों के थैले में कुछ वज़न आ चुकी थी और उपर से, सु्रज भी अपनी चमक दिखाने के नशे मे चुर। अब क्या कहना, संयोग बन चुके थे रिक्शे के सैर की हमारी, वरना घर के लोगों को लगता कि बेवजह हमने कुछ पैसे बर्वाद कर दिए। लेकिन लोग ये नहीं सोचते हैं कि कई बार किसी बर्बादी में ही किसी नयी कहानी या कविता की बीज छुपी होती है एक लेखक या कवि के लिए। वो ढूँढता फिरता है वैसी छोटी-मोटी बर्बादियाँ हर दिन!

मैं इस दुविधा में फँसी थी कि टेम्पो लुँ या रिक्शा? फिर सोची कि क्या हड़बड़ी है घर जाने की ऐसी भी। थोड़ी हवा खाते हुए घर चलते हैं। एक पेड़ के किनारे एक-दो रिक्शे लगे थें और कुछ टेम्पो भी मौजूद थें। मैं एक रिक्शे के पास गई ओर उस पर आधी आँख बन्द बैठे उसके चालक से पुछी, "पास में ही जाना है, तीन लोगों को बिठा लीजिएगा ।" उसकी आँखें पुरी खुल गयीं "तीन लोग" सुनते ही। बोलने के तरीक़े से हम थोड़े परिचित भी लगें उसे कहीं न कहीं। वो बिना किसी ख़ास माँग के तैयार और हम भी तैयार ख़ुशी-ख़ुशी अपनी मनपसन्द सवारी पे सवार होने को! थोड़ी देर बाद हम पुँछे, "कहॉं से हो?" उसने कहा, "जमुई!" मैं बोली, "ये तो बिहार में है।" उसने हामी भरा, "हॉं!" अब परदेश में तो रिश्ते बदल जाते हैं न, अगर अपने देश वाले मिल जाए किसी भी रुप में, भले ही अपने देश में मिल बॉंट के एक पल भी हम ना रह पाए! रिक्शे ने तो अभी कुछ ही दुरी तय की थी,

किन्तु हमारे दिमाग़ ने सवाल बनाने शुरु कर दिए थे और उनके उत्तर पाने की बैचेनी भी चल रही थी अच्छी-खासी साथ में। मेरा पहला सवाल रिक्शे वाले से था, "क्यों नहीं तुम रिक्शा अपने घर, बिहार, में चलाते हो?" उसके उत्तर को जानने के लिए आपको हमारी इस कड़ी के तीसरे भाग की प्रतिक्षा करनी होगी, लेकिन चौंक जाएँगे अाप सब रिक्शे वाले भाई साहब के जबाब को सुनकर!

(कैलिफोर्निया में बसी डॉ अर्चना पांडे मूलतः बिहार निवासी हैं | वह आजकल पटना प्रवास  पर है)

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