वामपंथी-अलगाववादी जुगलबंदी के चलते जेएनयू में लगे देश विरोधी नारों पर जब देशभर में आक्रोश उठ रहा था उसी समय कांग्रेस के युवराज इन नारों में आगामी विधानसभा चुनावों की हरी-भरी सम्भावनाएँ तलाश रहे थे। इस चक्कर में वामपंथी धड़ों के साथ कदमताल करते विश्वविद्यालय परिसर जा पहुँचे और "भारत की बर्बादी तक जंग लड़ने" का ऐलान कर रहे जंगजुओं के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े हो गए। मीडिया के कैमरों की चकाचौंध ख़त्म होते-होते कांग्रेस के अंदर ये अहसास गहराने लगा कि राहुल की इस कलाबाज़ी के चलते कहीं पार्टी औंधे मुँह नीचे न आ जाए। लीपापोती पर विचार होने लगा और जब देश के सभी विश्वविद्यालयों में तिरंगा फहराने की बात आई तो पता नहीं किसके निर्देश पर कांग्रेस कार्यकर्ता देश में स्थान-स्थान पर संघ कार्यालयों पर तिरंगा फहराने चल दिए।
जो राजनीति में उतरता है वो हँगामे खड़ा करने महत्व भी खूब समझता है। लेकिन मज़मा लगा नहीं , क्योंकि संघ कार्यकर्ताओं ने तिरंगा लेकर पधारे कांग्रेसियों का स्वागत फूलमालाओं से किया कई स्थानो पर उनके स्वागत में कालीन बिछाया। फिर साथ में तिरंगा फहराकर जब ज़ोर से "वंदेमातरम" का जयकारा लगाया तो कांग्रेस कार्यकर्ताओं की आवाज़ गले में अटक कर रह गयी। लेकिन उनकी शर्मिंदगी यहीं पर ख़त्म नहीं हुई। लोग सवाल करने लगे कि 'संघ कार्यालय पर तिरंगा क्यों फहराते हो। तिरंगा फहराना ही है तो कभी श्रीनगर के लालचौक पर ये कोशिश करते।' सोशल मीडिया पर भाजपा के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ मुरलीमनोहर जोशी के नेतृत्व में श्रीनगर के लाल चौक तक निकाली गयी उस यात्रा (26 जनवरी 1992 ) के चित्र साझा हुए जिसमें प्रधानमंत्री मोदी भी यात्रा संयोजक के रूप में उनके साथ थे।
'वंदेमातरम' पर विवाद खड़ा करने वाले तथाकथित सेक्युलरों का ये तिरंगा प्रेम कितना खरा है, इस पर भी खूब चर्चा हुई। इसके साथ ही संघ कार्यकर्ताओं के आपदा राहत कार्यों और 1963 में पूरे संघ गणवेश में गणतंत्र दिवस समारोह का हिस्सा बनने की तस्वीर भी वायरल हुई।
ऐतिहासिक सत्य है कि समय-समय पर संघ के स्वयंसेवक तिरंगे की खातिर अपने प्राण भी न्यौछावर करते आये हैं। 14 अगस्त 1947 को पाकिस्तान का जन्म हुआ तो कश्मीर के श्रीनगर में कुछ पाकिस्तान समर्थक तत्वों ने श्रीनगर की अनेक इमारतों पर पाकिस्तानी झंडे लगा दिए तब संघ के स्वयंसेवकों ने कुछ ही घंटों के अंदर तीन हज़ार तिरंगे तैयार करवाकर पूरे श्रीनगर में फहराए थे।
अक्टूबर 1947 में कश्मीर पर हुए पाकिस्तानी आक्रमण के समय भारतीय सेना के पहुँचने तक संघ के स्वयंसेवकों ने मोर्चा सम्भाला और अनेक बलिदान दिए थे। इतना ही नहीं जम्मू में भारतीय सेना के विमान उतर सकें इसके लिए 500 संघ कार्यकर्ताओं ने रात-दिन मेहनत कर सात दिनों में ही हवाई पट्टी को चौड़ा कर दिखाया था। इसी दौरान दूसरे स्वयंसेवक सेना के वाहनों के आने-जाने के लिए सड़के बनाने और टूटी-फूटी सड़को की मरम्मत के काम में जुटे थे। सामरिक महत्व के स्थान कोटली के आक्रमणकारी पाकिस्तानियों के हाथ में चले जाने का ख़तरा पैदा हो गया तो संघ के स्वयंसेवकों ने अदम्य साहस जुटाकर वहाँ मोर्चा बाँधा और छह हफ़्तों तक डटे रहे। कोटली में ही, जब हमारी वायुसेना द्वारा गिराई गयी गोलाबारूद की 20 पेटियाँ उस खड़ी ढलान पर जा गिरीं जो पाकिस्तानी तोपखाने की मार में आता था तब स्थानीय स्वयंसेवक कृष्णलाल तथा 20 अन्य स्वयंसेवक मौत के जबड़े में हाथ डालकर वो पेटियाँ सुरक्षित निकाल लाए और सेना को सौंप दीं परन्तु इसके लिए कृष्णलाल सहित छह स्वयंसेवकों को अपने प्राणो की आहुति देनी पड़ी। कश्मीर की सुरक्षा के लिए लड़े जा रहे इस युद्ध के अंतिम दौर में नगर कार्यवाह प्रकाश भी शत्रु का सामना करते हुए शहीद हुए।
22 नवम्बर 1952 को युवराज कर्णसिंह के जम्मू आगमन पर नेहरू जी के अभिन्न मित्र शेख अब्दुल्ला की नेशनल कॉन्फ्रेंस ने अपनी पार्टी के झंडे फहराने की चाल चली ( बाद में इन्ही शेख अब्दुल्ला को पाकिस्तान से साँठगाँठ और देशद्रोह के आरोप में जेल भेजा गया था ) तब संघ के स्वयंसेवकों ने जम्मू क्षेत्र के सभी प्रमुख स्थानो पर तिरंगा फहराए जाने को लेकर सत्याग्रह किया। शेख अब्दुल्ला के इशारे पर पुलिस ने गोली चलाई , जिसमे 15 स्वयंसेवक शहीद हो गए।
2 अगस्त 1954 को संघ के स्वयंसेवकों ने पुणे के संघचालक स्व विनायक आप्टे के नेतृत्व में दादरा और हवेली की बस्तियों पर धावा बोलकर 175 पुर्तगाली सैनिकों को हथियार डालने पर विवश किया और वहाँ तिरंगा फहराकर वह प्रदेश केंद्र सरकार के हवाले कर दिया। 1979 में सिलवासा में इस घटना की रजत जयंती मनाई गई तो नागरिकों ने इन स्वयंसेवकों का स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी होने के नाते सम्मान सत्कार किया। इसी प्रकार जब गोवा पर पुर्तगाली शासन स्वतंत्र भारत की देह का नासूर बना हुआ था और नेहरू जी अंतरर्राष्ट्रीय मत-मतान्तर और अपनी गुटनिरपेक्ष छवि के बीच उलझकर इस ओर से उदासीन बने हुए थे तब 1955 के गोवा मुक्ति संघर्ष में संघ के स्वयंसेवकों ने प्रमुख भूमिका निभायी थी। देश के विभिन्न स्थानो से गोवा आ रहे सत्याग्रहियों के खाने-पीने ठहरने की व्यवस्था संघ कार्यकर्ताओं ने की। संघ और जनसंघ के प्रमुख कार्यकर्ताओं ने सत्याग्रही जत्थों का नेतृत्व किया।
इसी सत्याग्रह में तिरंगा लहराते हुए सीने पर पुर्तगालियों की गोली खाकर पहला बलिदान देने वाले उज्जैन के स्वयंसेवक राजाभाऊ महांकाल थे। जब महांकाल की एक आँख को चीरते हुए गोली निकल गयी तब वो ये चिल्लाते हुए गिर पड़े कि "ध्वज की रक्षा करो.... घायल सत्याग्रहियों का ध्यान रखो।" आज उनके नाम पर उज्जैन में बस स्टैंड बना हुआ है। लेकिन इन बलिदानों की सरकार द्वारा किस कदर उपेक्षा की गई इसका प्रमाण है वो स्वयंसेवक ( और एक शिक्षक ) मोहन रानाडे, जिसने 1955 में पणजी सचिवालय पर तिरंगा फहराया, इस जुर्म में उन्हें अगले 17 साल लिस्बन जेल में काटने पड़े थे जबकि गोवा 1961 में पुर्तगाल के कब्जे से मुक्त हो गया था।
1962 , 1965 और 1971 के युद्धों में भी संघ के स्वयंसेवकों सीमा पर और अंदरूनी मोर्चे पर देशभक्ति का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत किया। रसद आपूर्ति, घायल सैनिकों के लिए रक्तदान और दूसरे अनेक राहत कार्यों को युद्ध स्तर पर चलाया। 65 की लड़ाई में जब सीमावर्ती फाजिल्का नगर पर पाकिस्तानी बमबारी का ख़तरा खड़ा हो गया तो लोगों ने पलायन करना प्रारम्भ कर दिया। परन्तु सभी स्वयंसेवक और उनके परिवार ( कुलमिलाकर पाँच हज़ार लोग ) वहीँ डटे रहे क्योंकि उन्होंने तय किया था कि अपनी भूमि दुश्मन के हवाले करके नहीं जाएंगे। 7 दिसंबर 1971 को राजस्थान के बाड़मेर में पेट्रोल ले जाती एक मालगाड़ी पाकिस्तानी बमों की जद में आ गई तो संघ के स्वयंसेवकों ने बरसते बामी की परवाह न करते हुए पेट्रोल के पीपों को सुरक्षित स्थान पर पहुंचाया। 71 के युद्ध में ही बंगाल के दिनाजपुर के चक्रम गाँव में पाकिस्तानी गोलाबारी के बीच से भारतीय सेना के लिए (पीछे छूट गया) गोलाबारूद ढोता एक किशोर स्वयंसेवक चुरका मुरमू वीरगति को प्राप्त हुआ।
संघ के स्थापना काल से ही भगवा ध्वज को हिन्दू संस्कृति के प्रतीक चिन्ह होने के कारण गुरु के रूप में स्वीकार किया गया जिसके समक्ष स्वयंसेवक प्रतिदिन एकत्र होकर अभ्यास -चिंतन आदि करते हैं। 1927 में संघ में भगवा ध्वज को गुरु की मान्यता दी गयी। इसके बीस वर्ष बाद 1947 में तिरंगा राष्ट्र ध्वज बना। तब संघ मुख्यालय पर भी तिरंगा फहराया गया। तभी से संघ के स्वयंसेवक भी देश के अन्य नागरिकों की तरह तिरंगे का सम्मान करते आ रहे हैं। लेकिन कतिपय राजनैतिक स्वार्थों के चलते संघ की शाखाओं में फहराते भगवा ध्वज पर ओछी टिप्पणी करने वाले नेता कल संभवतः मंदिरों पर फहराने वाले ध्वजों और दूसरे सांस्कृतिक मानबिंदुओं पर भी आपत्ति उठाएँगे।
संघ कभी ऐसी ओछी राजनीति में नहीं उलझा। तब भी नहीं जब तिरंगा राष्ट्र ध्वज नहीं बना था। 1936 में कांग्रेस के फैजपुर के राष्ट्रीय अधिवेशन में तत्कालीन अध्यक्ष पंडित नेहरू जब ध्वज फहरा रहे थे तब ध्वज ऊपर पहुँचकर खुला नहीं और अटककर रह गया। उस समय वहाँ मौजूद किसन सिंह परदेसी नामक संघ का स्वयंसेवक सरसराता हुआ 80 फुट ऊँचे ध्वज स्तम्भ पर चढ़ गया और अटके हुए ध्वज को फहरा दिया। नेहरू जी बहुत खुश हुए और मंच पर उसके अभिनन्दन की योजना बनाने लगे। इसी बीच कहीं से चर्चा निकल आई कि किसन सिंह संघ का स्वयंसेवक है , और उसके अभिनंदन की योजना समाप्त कर दी गई। संघ के संस्थापक डॉ हेडगेवार को जब इस बात का पता चला तो उन्होंने शाखा में किसन सिंह का सत्कार किया। उसे एक चाँदी का पात्र भेंट दिया और सभी स्वयंसेवकों से कहा कि जब अपने देश की बात आये तो सारे मतभेदों को किनारे करके सिर्फ देशहित के बारे में सोचना और व्यवहार करना चाहिए।
आज बात-बात पर संघ पर अनर्गल आरोप लगाने और कीचड उछालने वाले कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गाँधी जवाब दें की उनके पिता के नाना जवाहरलाल नेहरू जो जीवन भर संघ के विरोधी रहे उन्होंने अपने जीवन के अंतिम हिस्से में संघ के स्वयंसेवकों को गणतंत्र दिवस परेड में भाग लेने को क्यों आमंत्रित किया था ? क्या इसका कारण यह नहीं था कि जब चीन पर उनके अंधे विश्वास की नीति देश को पराजय के गर्त में ले गई थी और उन पर सब ओर से सवाल उठ रहे थे उस समय संघ के स्वयंसेवक चुपचाप भारत की सेना के साथ खड़े होकर देश के प्रति अपना कर्तव्य निभा रहे थे। नेहरूजी ने स्वयं देखा था कि जहाँ एक ओर वामपंथियों ने आक्रमणकारी चीनियों को भारत का मुक्तिदाता घोषित कर दिया था और कम्युनिस्ट श्रमिक संगठन चीनी सेना से लड़ रहे हमारे सैनिकों की पीठ में छुरा उतारन