"गीता" कहती है मनुष्य अपने पूर्व कृत, कर्म फलों के अनुसार अच्छी या बुरी योनि में जन्म लेता है, तदनुसार ही कर्म करता है। इस कर्म की मुख्यतः तीन श्रेणियां हैं - सतो गुण, रजो गुण और तमो गुण।
यहां हम सिर्फ एक गुण पर चर्चा करेंगें यानिकि सतो गुण। सतो गुणी की प्रायः दिव्य कार्यों में रुचि होती है, जन्म किसी विशिष्ठ कुल में या पूर्व जन्म, के कर्म के आधार पर, किसी स्त्री विशेष के कोख से, स्थान विशेष पर होता है। जहां से उनके लिए आगे का मार्ग प्रशस्त होता है। हमारा जन्म cause & effect के सिद्धांत पर आधारित है -- "जैसा कर्म वैसा जन्म"।
अब "महापुरुषों" के "महा जन्म" के ऊपर आतें हैं। यह तो स्पष्ट है,"महापुरुष" अपने साथ,"जन्मों" से "संगृहीत", सद्गुणों के साथ पैदा होते हैं, जो उनके भीतर एक "बीज" की तरह पड़ा रहता है। उसको "प्रस्फुटित" "पल्लवित","पुष्पित" करने के लिए जो खाद पानी डालता है, वह कोई भी हो सकता है - पति या पत्नी, राह चलती कोई "अदना" सी स्त्री या कोई "अंग्रेज, टिकट कलक्टर", कपटपूर्वक, "लगान" लेनेवाला,कोई "राजपिता" या फिर "मंथरा" जैसी कोई दासीया फिर, साधारण सी युवती को देवी का दर्जा दिलाने वाला, कोई मूर्ख,धोबी।
ये जितने भी दृष्टांत हैं, इन सबका का जन्म एकाएक , "रातों रात" नहीं हुआ है। ये सब गहन "मंथन" और "चिंतन" के बाद घटित हुए हैं। एक रात में "महापुरुष" नहीं बन सकता,चाहे वह "सुकरात" हों या "संत तुकाराम"। इन सबके अंदर "घनघोर" "सहनशीलता" और "विचारशीलता" थी...और ये एक जन्म का नहीं, "जन्मों" का अर्जित "बल" था। जिस कारण ये "चर्चित" हुए।
वरना कौन से "पति पत्नी" हैं, जिनमें बीच आपसी "झगड़े" नहीं होते हैं, मेरे तो सामने ही एक "सुकरात" रहते हैं। कहने का तात्पर्य हम सब जितने भी लोग हैं तेरह दफा ऐसी बात कह और कर देते हैं, जिससे कोई "तुलसीदास" या "कालिदास" बन जाए। लेकिन ऐसा होता नहीं, क्योंकि हम अति विशिष्ट गुणों के साथ पैदा नहीं हुए हैं। हम अपने "सीमित पुण्यों" के साथ पैदा हुए हैं। इसलिए, थोड़ी बहुत "पद प्रतिष्ठा" हासिल कर संतुष्ट हो जातें है। एक आध किसी का भला कर, "इतिश्री रेवाखंडे" कर देते हैं। "मौके" हमारे पास भी होते हैं,पर हम उसका "सदुपयोग" नहीं कर पाते।
जो ऐसा कर पाते हैं वह हर "युग में" ,"फलक" पर एक नई "इबारत" लिख जाते हैं। आज के लिए बस इतना ही। मैं एक साधारण स्त्री हूं, गृह कार्यों में लगी रहती हूं, बीच में कुछ लिख पढ़ भी लेती हूं। "भक्ति मार्ग" आसान है,इसलिए मुझे "पसंद" है, दिनभर घर के "काम काज" में लगी रहती हूं, थोड़ी प्रकृति, प्रेमी भी हूं "जीव जंतुओं" से भी प्रेम है, "वेद,पुराण" से "सबक" लेती रहती हूं, "प्रयाग" जाते समय, यदि "ऋषि,मुनियों" का कोई "जत्था कभी दरवाजे पर आकर रुकता है तो भिक्षा, बाहर जाकर नहीं देती, भीतर से ही बोल देती हूं," मिथिला से हूं...साधुओं से डर लगता है। "अंतरात्मा" की आवाज बहुत "प्रखर" और "सही" होती है... उसको सुनिए और आगे बढ़ते रहिए! यही "अध्यात्म" है।