राष्ट्र निर्माण के 75 वसंत

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भारत 75वें स्वतंत्रता दिवस की ओर अग्रसर हो रहा है । यह मात्र एक दिवस या एक उत्सव नहीं बल्कि उस यात्रा का गंतव्य है जो कई वर्षों तक स्वर्णिम स्वप्न की तरह सींचा गया। 1888 में ब्रिटैन के सांसद जॉन स्त्रचेय ने कहा कि मैं तमिल और पंजाब के नागरिकों को एक साथ एक राष्ट्र की तरह देखने की कल्पना भी नहीं कर सकता, परंतु यथार्थ उनकी कल्पना पर कटाक्ष है जहां एक पंजाबी कप्तान और केरल के गोलकीपर के साथ भारत हॉकी के मैदान से पदक तालिका तक पहुँचता है।

विश्व पटल पर भारत को राष्ट्र के रूप में देखना कई लोगों के लिए एक विडम्बना से कम नहीं है। सालों तक अंतरराष्ट्रीय बुद्धिजीवी वर्ग इस पूर्वाग्रह से ग्रसित रहा कि भारत जातिवाद, प्रांतवाद ,भाषावाद, धार्मिक भेद-भाव इत्यादि के द्वंद्व में फंसकर एक राष्ट्र के रूप में विफल हो जाएगा। उनके मस्तिष्क में भारत को लेकर इस भाव की उत्पत्ति भारत की ही कु-चेतनाओ ने की। हाल ही में पूर्व विदेश सचिव बिजय गोखले की किताब में इस तथ्य को  सुक्ष्म रूप से उजागर भी किया गया, लेकिन षड्यंत्रो के विपरीत देश की अखंडता अक्षुण्ण रही ।

भारत के यह 75 वर्ष "हिन्द पुत्रियों" के नाम भी रहे हैं जहां शिक्षा, खेल, संसाधन, तकनीकी उत्थान सहित सभी क्षेत्र में बेटियों ने परचम लहराया। वहीं गत वर्ष लाल किले से प्रधानमंत्री ने महिलाओं के लिए तीनों सेनाओं में परमानेंट कॉमिशन की घोषणा कर उनकी सिद्धता एवं पराक्रम को नया आयाम दिया। इन उदाहरणों की लंबी श्रृंखला है परन्तु कुछ विकारक तत्व आज भी समाज को दूषित कर रहे हैं "जहां नए अवसर के साथ महिलाएं आगे बढ़ रही हैं वहीं सरकार के अनेक प्रयासों के बाद भी देश के कई हिस्सों में उस पूर्वाग्रह को देखा जाता है जो उनके सपनों का गला घोंट उन्हें रूढ़िवादिता के जंजीरों में कैद करना चाहती है।" यहां आज भी सशक्त मार्गदर्शन की उतनी ही आवश्यकता है जितनी एक नवजात को स्तनपान की होती है।

आज भारत में एक संकेत आर्थिक जागरण का भी है। स्वतंत्रता के उपरांत भी भारत सालों तक आर्थिक निर्भरता की पराधीनता से ग्रसित था, 200 वर्षों के विदेशी शासन ने औद्योगिकीकरण को विकलांग कर दिया और भारत जो कभी आयात का केंद्र रहा वह बस विदेशी कारखानों का बाजार बन कर रह गया। पिछले पांच दशकों में परिवर्तन के स्वर ने भारत को आर्थिक संपन्नता प्रदान कर आगे बढ़ाया और इसके साथ ही 21वीं शताब्दी में भारत ने शंखनाद किया आत्मनिर्भरता का और हर मिथ्या को पीछे छोड़ विश्व की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बन कर खड़ा हुआ। आगे का मार्ग प्रतिस्पर्धा से भरा है, नए माध्यम उजागर किये जा रहे हैं और साथ ही नई चुनौतियों भी आ रही है। नई पीढ़ी के लिए आवश्यक है पर्यावरण को क्षति पहुंचाए बिना भारत में तकनीकी क्रांति लाने की चुनौती को  पार करना, क्योंकि भारत को विश्वगुरु बनाने की परिकल्पना में इसके अर्थतंत्र की भागीदारी अग्रिम रहेगी और उसका नेतृत्व देश के युवाओं को ही करना है। हर पीढ़ी एक योजना के साथ बड़ी होती है, जहां गत पीढ़ियों के अथक संघर्षों ने हमें आज़ादी दिलाई वहीं आज समय की मांग है कि भारत के प्रत्येक नागरिक उन अथक प्रयासों से प्राप्त स्वतंत्रता को "सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय" के मूल मंत्र से सार्थक करें।

इन दशकों में समता, प्रगति और बंधुत्व की भावना ने एक डोर की तरह हमें जोड़ कर रखा है। भेद-भाव, अराजकता, मानसिक गुलामी इत्यादि के असंख्य बीज भारत की धरती में बोये गए लेकिन हमारे सामूहिक प्रयासों ने उन्हें विफल किया, और आगे भी अपनी एकता से युवाओं को ऐसे अलगाववादी तत्वों के विभाजक प्रयासों को विफल करना है।

तत्काल में कोरोना के कारण हर वर्ग संघर्षरत है, फिर भी हमारी इच्छाशक्ति ने इस नई कार्यशैली को एक अवसर के रूप में लिया है। जो भारत 2020 तक टेस्टिंग उपकरणों व टीकाकरण के लिए पराधीन था वो अपने आत्मबल एवं इच्छाशक्ति से ही ऐसी विकट महामारी में भी विश्व भर में टीकाकरण के आंकड़ों का मानक बना रहा है। कालचक्र गतिशील है और आज जब हम अमृत महोत्सव से अपने भविष्य की तेजस्विता की कामना कर रहे हैं, तो हमें स्मरण रखना है संत विवेकानंद की वाणी को "उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।" अर्थात् उठो, जागो, और ध्येय की प्राप्ति तक रूको मत । यहां हमारा ध्येय संकुचित या पूर्व निर्धारित नहीं है। इस ध्येय का निर्माण हमें स्वयं संकल्पित होकर करना है और इस ध्येय रूपी ताले की कुंजिका के रूप में गत 75 वर्ष हमारे साथ हैं।    

(लेखक, विधि निकाय ,दिल्ली विश्वविद्यालय में छात्र हैं )

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