आज ऋण माफी और किसानों को नकद सहूलियतें देने की बातें जोर पकड़ती जा रही हैं। यह भी कहा जा रहा है कि उसको दिया तो इसको क्यों नहीं। एक भीड़ को पछाड़ने दूसरी भीड़ तैयार है। दूसरी को रौंद तीसरी आगे बढ़ना चाहती है। कोई सर पे गन्ने का गट्ठर लाद चलने की कोशिश कर रहा है
तो कोई रंग बिरंगे मिट्टी के बर्तनों में अनाज भर करतव दिखा रहा है। कइयों को लगता है जैसे उन्हें अपना खोया वजूद वापस मिल गया हो। उत्सव सा माहौल है। कई समूह कुम्भ सी तैयारी कर जैसे आनन फानन डुबकी लगा और शंखनाद कर, बिना लड़े जीत के स्वपन देखने लगे हैं। उधर सत्ता के हाथ खजाना है। वो भी पूरी उदारता से सार्वजनिक पूंजी को व्यक्तिगत दान के रूप में लुटाने को तत्पर है। दीर्घकालिक प्रभावी योजनाओं की जगह लेमनचूस के कारखाने खोले जा रहे हैं। दुर्भाग्य है कि ये लेमनचूस भी सिर्फ मध्यम और बड़े किसान ही ले पा रहे हैं।
व्यापारी कहते हैं व्यापार ऐसा करें कि आज जम कर कमायें और यह भी निश्चित कर लें कि अगली बार और ज्यादा कमायें। आज की राजनीति इसी व्यापारिक सिद्धांत पर चल रही है। पक्ष विपक्ष दोनों मुद्दे के हल की बजाये, अपनी राजनैतिक भविष्य की तैयारी में लगे हैं। अब बाढ़, सूखा, खाद, बीज और किसान के नियंत्रण का बाजार मुद्दा नहीं रह गया है। सिर्फ कमिटी के रिपोर्ट और कर्जमाफी के मलहम की बात हो रही है। विपक्षी खुश हैं कि बैठे बिठाये एक मुद्दे के साथ भीड़ भी मिल गयी। सरकार सोच रही है, फसल कोई भी लगाये, काटेंगे तो हम ही। सभी खुश हैं।
जो जिंदगी भर सिंचाई की परियोजनाओं को रोक अपनी दुकान चलाती रहीं। अरबों खरबों का इस देश का नुकसान कराया। सैकड़ों बेघर के मुद्दे उठा, करोड़ों किसानों के घर बार उजाड़ने में भूमिका निभाती रहीं, आज अचानक उन्ही पीड़ित किसानों की रहनुमा बन अखबारों में सुर्खियां बटोर रही हैं। Apple और android से लैस fabindia के वस्त्रों से सुसज्जित यह भीड़ tweet करती है, facebook पर लिखती है कि वैश्विक साम्राज्यवाद ही संमस्या कि जड़ है। कुछ के द्वारा बाजार पर सर्वहारा के नियंत्रण की बातें भी होती हैं।
इतिहास और वर्तमान का द्वंद देखें कि जिस एपिपेलियोलिथिक नैचुफियन संस्कृति ने अन्न और किसान की उत्पत्ति में मुख्य भूमिका निभाई। आज उस संस्कृति का जनक सीरिया और उसके इर्द गिर्द का भूभाग, twitter और facebook के मालिक देश द्वारा नष्ट नाबूत कर दिया गया है। वहीं भारत जैसे देश में एक तथाकथित सभ्य और पढ़ी लिखी twitter और facebook से लैस भीड़ अन्नदाता के मूल मुद्दों से ध्यान भटका अपनी रोटी सेंकने को आतुर है।
इतिहास साक्षी है किसान को कभी भी भीख मांगने की जरूरत नहीं पड़ी। आज राजनैतिक पाकेटमारों की भीड़ उन्हें जबरदस्ती भीख की आदत लगाना चाहती है। ये जानते हैं कि भीख को जब हाथ बढ़ते हैं तो सबसे पहले घुटनों में कमजोरी आती है। इस भीड़ के लिये ऐसे लोग माकूल होते हैं।
आज के किसान को अगर सही बीज सही मूल्य पर मिले, सही खाद मिले, बाढ़ और सूखे से निजात मिले, तो आधी संमस्या वहीं खत्म हो जाती है। मगर सबसे महत्वपूर्ण है कृषक के हाथ कृषि बाजार। कोई इसकी बात नहीं करना चाहता। जब मांग के अनुरूप दाम मिलेंगे बाजार स्वतः निर्धारित होते रहेगी। पहले बाजार को किसानों के हाथों में देकर मूल्यों का स्वतः निर्धारण उत्पादन मूल्य आधारित करने का प्रयास होना चाहिये। शायद ज्यादातर मामलों में सरकारी समर्थन मूल्य की जरूरत ही न पड़े। बाजार किसान के खर्च अनुसार स्वतः नियंत्रित होने लगे। इसके लिए बाजार को खेत के नजदीक ले जाने की आवश्यकता होगी। कृषि उत्पाद हेतु भंडारण की व्यवस्था होनी चाहिये, ताकि अच्छी फसल होने पर, व्यापारियों द्वारा अनाज मूल्यों में किये गये कृत्रिम गिरावट से बचा जा सके।
समर्थन मूल्य के मकड़जाल से निकलना जरूरी है। आज जब हम स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों की बात करते हैं तो भूल जाते हैं कि इस मांग की व्यवहारिकता सीमित है। सही है कि नौकरी करने वालों की आय में बेतहाशा वृद्धि हुयी है। असंतुलन बढ़ रहा है। सप्ताह में चार क्लास लेने वाले प्रोफेसर भी लाखों की तनखाह लेते हैं। सातवीं पे कमीशन का सांकेतिक विरोध कर रहे कुछ प्रोफेसर इस मसले को अच्छी तरह समझते होंगे। आय में इस तरह की बेतरतीब बढ़ोत्तरी खाई को गहरी करेगी। मगर उपाय भीख देकर मुख्य समस्या के हल को टालने में नहीं बल्कि हल हर स्तर पर किसानों के दीर्घकालिक क्षमता संवर्धन और सशक्तिकरण में निहित है।
आज जरूरत कृषि केंद्रित नीति की है न की किसान केंद्रित नीति की।अतः किसानों को जीने दें। उनके जमीन और जमीर से खिलवाड़ बंद करें।