हम सभी की याद में आज से तीस साल पहले बिहार ने पहली बार बड़ा चुनावी करवट लिया था। वो तीस साल पहले का चुनाव ने इस राज्य की राजनैतिक भूमि से अगली जातियों के वर्चस्व को हमेशा के लिए ख़त्म कर दिया था।उस चुनाव के १५ साल बाद, पुनः बिहार की राजनीति में , लालू यादव के शासन का पटाक्षेप के साथ एक नए आशा के रूप में नीतीश कुमार का आगमन हुआ था। आज फिर से १५ साल बाद, हम उसी मक़ाम पर आ खड़े हुए है, जहाँ पर हम ३० साल पहले और पुनः १५ साल पहले खड़े थे। लगता है ये चौराहा ही बिहार की राजनैतिक हक़ीक़त हैं, जहां पर घूम फिर कर हम बार बार आ खड़े होते है। आख़िर क्यूँ बिहार इस चौराहे से आगे नहीं बढ़ पा रहा है? क्या हर बार हम ग़लत रास्ते चले जाते हैं, जिसके चलते हमें लौट कर उस चौराहे पर वापस आना पड़ता है।
हम चाहे या नहीं चाहे, माने या ना माने, बिहार का चुनाव हमेशा जातिगत समीकरण के इर्द गिर्द ही घूमता रहा है। शायद १९७७ का चुनाव एकलौता चुनाव रहा है जिसमें जाति से ज़्यादा मुद्दों का महत्व था। आपात काल और प्रजातंत्र को बचाना, ऐसे दो मुद्दों ने पहली और शायद आख़िरी बार बिहार के चुनाव को जातिगत राजनीति से दूर रखा। पर इसी चुनाव ने, मझौले जातियों और कुछ हद तक पिछली जातियों को प्रजातंत्र में उनके नम्बर में ज़्यादा होने के फ़ायदे को भी दर्शाया। वो पहला चुनाव था जब बाहुल्य मझौले जातियों का स्पष्ट प्रभाव के साथ, उनके बीच से नए, प्रभावी और आक्रामक नेताओं का बिहार की राजनीति पर उद्भव हुआ था।
१९७७ के अगले एक दशक तक बिहार की राजनीति छोटे मोटे प्रयोग के साथ चलता रहा जिस बीच मंझौले जातियाँ, नए जातिगत जोड़ और मेल के तरीक़े परखते रहे और १९९० में श्री लालू यादव ने मुख्यतः मझौले जातियों और मुस्लिम का ऐसा नया समीकरण तैयार किया जो बिना लालू यादव के भी ३० साल तक बिहार के राजनैतिक पटल पर बरकार है। इस समीकरण के सिरमौर नेता श्री लालू यादव और श्री नीतीश कुमार, पिछले ३० साल से कुछ नए जोड़ तोड़ के साथ उसी जातिगत समीकरण के साथ चला रहे हैं।उस समीकरण में पहले यादव, आरजेडी के नाव में पतवार के तरह काम कर रहे थे, उसी तरह जेडी(यू) के लिए बाक़ी मझौले जातियाँ ज़िनमे कुर्मी मुख्य भूमिका निभाता आ रहा है। बीजेपी, जिसने इस बात को पहचान कर की बिहार और जातिगत राजनीति शायद अभी किसी और समीकरण के लिये तैयार नहीं है, अगली जातियों और मझौले जातियों के बीच, जेडी(यु) के सहारे आज तक अपनी नैया चलाती रही है।
आख़िर वह क्या बात है जो बिहार के इस चुनाव में हमें फिर से उसी चौराहे पर खड़ा कर दिया है, जिस पर हम ४३ साल पहले भी थे, ३० साल पहले भी थे और १५ साल पहले भी थे। राजनैतिक स्तर पर अगर हम देखे तो शायद कुछ प्रगति समझ में आ भी जाए पर, सामाजिक और आर्थिक आधार पर देखे तो शायद हम उसी चौराहे पर खड़े है, जहां पर हर बिहारी अपने नेता से अपेक्षा कर रहा है की वो हमें विकास के उस रास्ते पर ले चले जहां उसे सुरक्षा,मूलभूत सुविधाएँ जैसे, स्कूल, अस्पताल, रोड, बिजली और कुछ हद तक नौकरी की गुंजाइश, स्थानीय स्तर पर मौजूद हो।
पर स्थिति क्या है, जिसके चलते मुझे लगता है की हम उसी ३० साल या १५ साल पहले वाले चौराहे पर ही है।हम केवल पढ़ाई की दृष्टि से देखे तो यह साफ़ रहा है की बिहार में पढ़ाई की स्थिति बद से बद्तर होती गईं है। कहाँ पूरब भारत के ऑक्स्फ़र्ड समझने वाले कालेज, आज केवल नाम के लिए ज़िन्दा हैं। पढ़ाई, पढ़ाने वाले और छात्र, सभी के स्थिति मरणासन्न जैसी ही है। यह परिस्थिति बिहार को विकास के सपने तो दिखा सकती है पर वह साकार कभी नहीं कर सकती है। ऐसी स्थिति में नेता चुनावी चौराहे पर हमें उसी राह पर ले जाने पर विवश करते हैं तो जाति के आधार पर लोगों को आपस में जोड़ती है और साथ में यह जुड़ाव उस जातिवर्ग को एक शक्ति का अहसास कराती है।
मुझे यह वही स्थिति लगती है, जिसमें लकड़ी के सारे कटे टुकड़े मिल कर एक मजबूत गट्ठर तो बनते है पर उस मज़बूती का उपयोग केवल नेता चुनाव जीतने के लिए भर कर सकते है। उस चुनाव के दौरान और बाद में भी गट्ठर, ये सोच कर ख़ुश हो सकता है की वो काफ़ी मज़बूत है परंतु उस मज़बूती का फ़ायदा उस गट्ठर में पड़ी लकड़ियों को क़तई नहीं हो सकता है। और इस बात से ये सारी लकड़ियाँ बेख़बर भी हैं। यही वो कारण है की केवल एक मानसिक मजबूती का अहसास बिहार की अलग अलग जाति विशेष जनता को, अलग अलग राजनैतिक काल में होता रहा है, परंतु किसी भी स्थिति में उसी जाति विशेष की जनता का भला नहीं हो पाया है।
आज भी घूम फिर के हम उसी चौराहे पर खड़े है।राजनैतिक दलों ने फिर से उसी जाति के आधार पर चुनाव लड़ने का चक्रव्यूह रच रहे है और हमें फिर से उस चौराहे से वही पुराने रास्ते ले जाने के लिए कटिबद्ध हैं, जिस रास्ते चल कर हम दुबारा अगले चुनाव में उसी चौराहे पर खड़े पाएँगे, जहां हम आज खड़े है। यह एक ऐसी भूलभूलैयाँ में हम घूम रहे है जो हमें चुनाव दर चुनाव फिर से विकास के उस शुरुआती लाइन में खड़ा कर देता है जहाँ हम ३० साल या १५ साल पहले खड़े थे।
अब मेरे घनिष्ठ मित्र ने मुझसे ये सवाल करने लगे की हम लोगों ने विकास नहीं किया है, ये आप कैसे कहते है? हमारे विकास के कथित माडल के समर्थक, रोड, बिजली, खाना बनाने वाली गैस, जैसी मूलभूत सुविधाएँ जो हम तक इन सालों में मिली है, उसका उदाहरण देते नहीं थकते। दूसरी तरफ़, विरोधी दल उसका खंडन तो करते है, पर उनका विकास का पैमाना भी वही होता है। परंतु वो सभी ये नहीं बता पाते की इस विकास के बावजूद हमारी पढ़ाई की और रोज़गार की स्थिति, सरकारी तंत्र में अविश्वास की दुर्गति, सारे राज्य में स्वास्थ सेवा का ज़र ज़र हाल, युवा वर्ग में ख़ालीपन का अहसास, हमारा प्रतिव्यक्ति के हिसाब से जीडीपी में भारत में आख़िर की स्थिति में रहना, राज्य की आधी से ज़्यादा जनता को बस ग़रीबी में जीवित ही भर की रहने का भ्रम, क्या यही विकास है?
और रोज़गार की स्थिति, सरकारी तंत्र में अविश्वास की दुर्गति, सारे राज्य में स्वास्थ सेवा का ज़र ज़र हाल, युवा वर्ग में ख़ालीपन का अहसास, हमारी व्यक्ति के हिसाब से जीडीपी में भारत में आख़िर की स्थिति में रहना, राज्य की आधी से ज़्यादा जनता को बस जीवित ही भर की रहना, क्या यही विकास है?
केवल इंफ़्रा या आधारिक संरचना के नाम पर मूलभूत सेवा देना वाला राज्य शायद यह भूल चुका है की ये इंफ़्रा एक पैर के बराबर है जिसपर बिहार खड़ा नहीं हो सकता है। अपने पर खड़े होने के लिए उसे पूँजी, एक कुशल व योग्य शासन, कौशल और पढ़ा लिखा युवा तथा जातिवाद से मुक्त समाज की भी ज़रूरत है। दुर्भाग्य बिहार का यह है की हमारी राजनीति, हमें कभी दूसरे पैर के बारे में बताती ही नहीं है। अपने सबसे अच्छे स्वरूप में भी हमारी राजनीति और शासकवर्ग हमें बेहतर सुविधा के नाम पर रोड, बिजली, गैस तो देने की कोशिश करती है, परंतु वो बिहार को कभी अपने पैर पर नहीं खड़े होने देती है। यही कारण है की हम बार बार उसी चौराहे पर आ खड़े होते है जहां हम आज से ३० साल पहले खड़े थे। क्या यही हमारी नियति है या कभी हम इस चौराहे से आगे भी निकल सकेंगे, यह सवाल पहले भी हमारे सामने था और वही सवाल आज भी हमारे सामने है।
(लेखक एक पूर्व प्रशासनिक अधिकारी। उपरोक्त लेखक के निजी विचार हैं।)