सदियों पहले राजनीति विज्ञान के ज्ञाता जब आधुनिक राज्य के शुरुआत या प्रारम्भ पर जब भी कोई सिद्धांत के बारे में बात की तो उनके मूल में एक विश्वास का होना था। यह विश्वास, व्यक्ति से समाज और समाज से राज्य के तरफ़ हमारा जाना था। यह वह विश्वास था जो हमें राज्य और राज्य से जुड़े सारे संस्थाओं के साथ जोड़ता था । प्रजातंत्र हो या राजतंत्र, नौकरशाही हो या न्यायपालिका, कोम्यूनिस्ट हो या लिबरल शासन की परम्परा, सबका मूल वो विश्वास है, जो यह बताता है की राज्य की स्थापना का मुख्य उद्देश्य, समाज और उसने रहने वाले व्यक्तियों की सुरक्षा, सम्मान और उन्हें एक हद तक आज़ादी के साथ, जीवन निर्वहन में सहायता देगा। हाँ, ये ज़रूर है कि ये सारी परिस्थिति डिग्री में हर राज्य के संदर्भ में अलग अलग रहती है, परंतु वहाँ की जनता के मन में वहाँ के राज्य और संस्थाओं पर विश्वास ही यह बताता है की वो राज्य किया सशक्त है।
आज के समय में जब हम राज्य के बारे में बात करते हैं तो एक बात उन राज्यों के बारे में भी करते है जिन्हें हम असफ़ल राज्य या फ़ेल्ड स्टेट कहते है। वो राज्य, जैसे पाकिस्तान अथवा लैटिन अमरीकी असफल इस लिए हुए की वहाँ पर जनता ने राज्य और उसके सारे क़ीरेदर या संस्थाओं पर से अपना विश्वास खो दिया है। इसके चलते ये राज्य अपनी जनता के लिए नहीं हो कर एक खास वर्ग विशेष के लिए ही हो कर रह गया है। वो वर्ग कही सेना के रूप में है या कही डिक्टेटर के मन मर्ज़ी पर रह गया है। पर इन सारे असफल या फ़ेल्ड राज्यों के जड़ में सारी जनता के उस विश्वास का खोना है जो किसी भी राज्य की नीव हुआ करती है।
मैंने पहले भी राजनैतिक दार्शनिक हॉब्ज़, लॉक और रूसो जो सामाजिक अनुबंध द्वारा स्थापित राज्य की मह्हता, को सार्वजनिक जीवन में सर्वोपरी और सार्वभौमिक मानता है, उसके बारे में लिखा था। उस राजनीतिक सम्बन्ध में पारस्परिक अनुबंध के बाद, नागरिक के मौलिक अधिकार की सीमा, उस विश्वास के भरोसे राज्य को दिया जाता है, जिससे जनता अपने को सुरक्षित महसूस करती है। परंतु जब हम अपने राजनीतिक परिप्रेक्ष्य की दृष्टि से जब अनुबंध और सम्बन्ध की बात करते है तो सिर्फ़ हम समझ सकते है इस राज्य और समाज का गठन के पीछे हमारा इन संस्थाओं के ऊपर एक अटल विश्वास का होना है। यह विश्वास किसी भी राज्य के नैतिक शक्ति का द्योतक है। जब तक ये परस्पर विश्वास हमारा राज्य, समाज और व्यक्तियों में आपस में बना है, तब तक वह राज्य और समाज एक सफल राज्य और समाज कहा जा सकता है।
आख़िर इस विश्वास का शुत्र क्या है जिसके ज़रिए हम यह समझते हैं कि यह समाज और देश या राज्य की नीव, हम, यानी हर व्यक्ति है। जब हमारा संविधान कहता है की ‘हम, भारत की जनता’ तो वह यह बताता है की भारत है तो हम है और साथ ही हम है तो भारत है। यह परस्पर विश्वास ही हमारे संविधान का मूल मंत्र है। पर इसके लिए हमें ‘हम’ रहना भी पड़ेगा। दुर्भाग्य ये है की हमारी सारी राजनीति हमें हम से मैं की तरफ़ ले जाती रही है। जाती, धर्म, भाषा आदि कुछ ऐसे पहलू हमारे राजनीति के सबसे बड़े ऐसे हथियार साबित हुए हैं, जो हमें, हम से मैं, मुझे और मुझ जैसे वालों को ही मुख्य केंद्र बना कर अपनी राजनीति चमकाते रहे है। ऐसी स्थिति में क्या हमारा विश्वास राजनैतिक संस्थाओं पर कितना बना रहेगा, यह एक बड़ा सवाल हमारे सामने है।
आज क्या आप गारंटी और विश्वास के साथ कह सकते है की आप के साथ न्याय होगा, आप के पैसे बैंक में सुरक्षित रहेंगे, आप की नौकरी बनी रहेगी, कोई अनजान व्यक्ति आप को किसी भी नापसंद वाली बात पर धमकी देना ना शुरू कर देगा, आपका खान पान, आपका किसके साथ क्या व्यवहार होना है और आप क्या पहनते हैं, ये सभी बातें कोई और तय करेगा और राज्य और राज्य की संस्थाएँ या तो इसे दूर से देखते रहेंगे या इन सारी घटनाओं में सीधे सीधे भागीदार रहेंगे। और अगर ऐसा हो रहा है तो क्या आपको लगता है की हमारा विश्वास राज्य और उसकी संस्थाओं पर रह जाएगा? फिर अगर ये विश्वास का टूटना इस हद तक पहुँच जाए जब सामान्य नागरिक, राज्य से कुछ भी अपेक्षा करना बंद कर दे, तो उसके बाद राज्य का होना या ना होना एक हद तक हमारे लिए बेमानी हो जाता है। इन ही राज्यों को हम असफल राज्य या फ़ेल्ड स्टेट कहते हैं। यह वह कसौटी है जिस पर हम सभी को आज के हालात को रख कर देखना चाहिए, अन्यथा किसी भी राज्य को बिखरने में ज़्यादा समय नहीं लगता है, ख़ास कर जब वह की सामान्य जनता अपने राजनैतिक नुमाइन्दों की ग़लतियों को लगातार नज़रंदाज़ करती रहे।
कोलम्बिया, पनामा, लाइबेरिया, ज़िम्बावे, पाकिस्तान जैसे देश इसी बात के गवाह है की ये राज्य राजनैतिक स्तर पर राज्य और देश होने का दावा भर सकता है, परंतु वो विश्वास के तराज़ू से नैतिक, सामाजिक और वित्तीय स्तर पर राज्य की परिभाषा को परिलक्षित नहीं करते है।अब इस सफल और असफल राज्य के पैमाने में हम कहाँ है, ये देखना हम सभी नागरिकों का मूल कर्तव्य है। अगर हम ग़लत दिशा जो हमें, हम से मैं की तरफ़ ले जा रहा हो, तो उसे रोकना भी हमारा सैद्धांतिक और संवैधानिक कर्तव्य होना चाहिए। ऐसा नहीं होने से हमारी अगली पीढ़ी के लिए हम एक ऐसा असफल राज्य छोड़ कर जाएँगे जिसे सम्भालना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन होगा ।
(लेखक एक पूर्व प्रशासनिक अधिकारी। उपरोक्त लेखक के निजी विचार हैं।)