#आपदा प्रबंधन: बिहार मॉडल

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बिहार में जन्म हुआ, यहीं पढ़ा-लिखा, बड़ा हुआ, अनुभव प्राप्त हुआ. लगभग पाँच दशकों की उम्र में आते आते इस शब्द "आपदा-प्रबंधन" का गूढ़ अर्थ समझ पाया.

कुछ सन्दर्भों को आपके समक्ष रख रहा हूँ :

1) जब से बड़ा हुआ, देखने समझने लायक हुआ, तब से देख रहा हूँ कि वर्षा के शुरू होते ही दियारा क्षेत्र के लोग मवेशियों, घर गृहस्थी समेटकर, किसी भी मुख्य सड़क, सरकारी स्कूल, कॉलेज ये खाली पड़ी जगहों पर अस्थायी रूप से 5-6 महीनों के लिए खाना-बदौश की तरह बस जाते हैं और फिर गंगा, कोसी, गंडक नदियों और उप-धाराओं के पानी उतरने के बाद वापस लौट जाते हैं अपने पुराने परिवेश में. ये सारा कुछ वो अपनी समझदारी, अपने संसाधन, अपनी मेहनत, अपनी दूरदर्शिता के आधार पर करते हैं, बिना किसी सरकारी आपदा प्रबंधन के.

2) बिहार झारखंड के दक्षिणी सीमा पर वर्षों से एक माडल चल रहा है. वहाँ कोई 200-300 देशी पहाड़ी गायों के झुंड के हरवाहे भीषण गर्मी की शुरुआत में जब उन क्षेत्रों में पानी की, चरने लायक हरियाली की, घास की कमी हो जाती है तो वो उत्तर की ओर मवेशियों के झुंड के साथ प्रवास कर जाते हैं और अगले 2-3 महीने इधर ही भिन्न भिन्न खेत में उन्हें चराते-बैठाते हैं और बदले में खेत को गौधन ( गौ मूत्र और गोबर) पर्याप्त मात्रा में मिल जाता है. पुनः वापस. ये कितना बेजोड़ आपदा प्रबंधन है - बिना पढ़े लिखे ग्रामीण लोगों का - वो भी शत प्रतिशत आत्म निर्भरता के साथ.

लेकिन पढ़े लिखे, बड़े बड़े उच्च पद पर आसीन bureaucrats, नेताओं, डाक्टर, teachers का अपना भी एक विशिष्ट माडल है आपदा प्रबंधन का. आपकी हमारी आपदा, उसके प्रबंधन से उनकी चांदी.

इतने वर्षों में एक भी पॉलिसी, नीति, प्रयास नजर नहीं आया, जहां उच्च पदों के लोगों का Vision दिखा हो, शुद्ध मक्कारी और आपदा में भ्रस्टाचार का प्रबंधन छोड़कर. बाढ़, सुखाड़, महामारी उनके लिए अवसर बन कर आती है - काग़ज़ी खेल और जनता अपने भाग्य को कोसती हुई समय काट लेती है.

कोई बड़ी या छोटी बीमारी हुई कि प्रबंधन शुरू - आपका मेडिकल insurance यदि हो तब क्या शातिरपना दिखाते हैं ये समाज के प्रतिष्ठित देव तुल्य चिकित्सक. जाँच, x-ray, ultrasound, MRI, CT Scan और पता नहीं क्या क्या. हर जगह दलाली और कमिशन खोरी का नंगा खेल चलता है. कॉर्पोरेट हॉस्पिटल बने ही इस आपदा प्रबंधन के लिए हैं. मैंने नहीं देखा कि 2-3% से ज्यादा गंभीर मरीज़ के जिवित बचते हुए, हाँ मरने के पहले कोई 25-30 लाख जो सिर पर कर्ज खाए हैं, वो दे आते हैं.

बच्चा 5-6 क्लास तक पहुँचा कि तरह तरह के कोर्स के advertisement चालू. 10 वीं में आते आते पैरेंट्स बेटी ब्याह की तरह 7-8 लाख का इन्तेजाम कर लेते हैं, क्योंकि शिक्षा के इस नाजुक आपदा का यदि समुचित प्रबंधन न किया गया तो पता नहीं कौन झंझावात परिवार को घेर ले.. कोटा, दिल्ली, पटना में कोचिंग की लाइन लगी है. 11-12 वीं के गणित, भौतिकी, रसायन, जीव विज्ञान पढ़ाने वाले टीचर को कोचिंग से 40-45 लाख रुपया मिल जाते हैं - आपके बच्चे की शिक्षा में आयी आपदा प्रबंधन के नाम पर. कोई 2-3% बच्चा अंतिम रूप से उनकी पढ़ाई से पास करता है.

कोरोना में इससे ज्यादा बढ़िया आपदा प्रबंधन है क्या?

बिहार की सबसे बड़ी आपदा हैं - हमारा अपनों के बीच आत्मीय और गहरे रिश्ते का अभाव. हमारी अपनी समझदारी और प्रयास ही हमे बचाता है - आपदा से भी और उनके प्रबंधन से भी।

(लेखक एक शिक्षाविद हैं)

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