रंग बदलते भारत के बदरंग किसान

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आज का भारत एक खास नजरिये से एक सफल भारत है। अब तो किसी सभ्य नागरिक को पुण्य हेतु कर्मकांड पूरा करने के लिये पांच भिखारी को खाना खिलाना हो, तो भिखारी ढूंढना भी मुश्किल हो जाता है। ऐसा कब हुआ, कैसे हुआ और किसने किया, यह कहना कठिन है। मगर आज गांव से शहर तक भारतीय जीवन स्तर में सुधार महसूस किया जा सकता है।

कुछ लोगों का कहना है आर्थिक विसंगतियों में कमी आयी है। कुछ कहते हैं कि श्रम की पहचान और बेहतर पारिश्रमिक के कारण परिवर्तन हुआ है। कुछ वैश्विक आर्थिक परिवर्तनों को कारण मानते हैं। कई इसमें सूचना क्रांति और प्रवासी भारतीयों का भी योगदान देखते हैं।आज फटे कपड़ों में मजदूरों की टोली काम करती नहीं दिखती बल्कि शर्ट पैंट में मोबाइल से लैश मजदूर आत्मविश्वास भरे लगते हैं।
आर्थिक वर्गीकरण भी बदल गया है। सायकल वाले निम्न वर्ग में आ गए हैं, मोटरसायकल वालों को मध्यवर्ग से एक उपवर्ग में तोड़ "निम्न मध्यमवर्ग" में रखा जाता है। सस्ती गाड़ी वाले मध्यमवर्ग एवं महंगी गाड़ी वाले उच्च वर्ग में गिने जाते हैं। टूटी साईकल पर इंजिनयरिंग की पढ़ाई पूरे करने वाली पीढ़ी के लिये, आज बाइक पर इंटरमीडिएट की पढ़ाई कर रहे बच्चे धनाढ्य परिवार के लगते हैं। तब के समय टूटी साईकल भी सम्पन्नता का अहसास दिलाती थी।
साठ के दशक से 2017 तक के सफर को देख रहे एक सज्जन से जब मैंने इस बदलाव के संबंध में प्रश्न किया तो उनकी सोंच काफी अलग लगी। वो गुजरे जमाने की अच्छाइयों को गिनाते दिखे। ठोस तथ्य भी प्रस्तुत किये। उनका सीधा अभिप्राय सांस्कृतिक एवं सामाजिक मूल्यों के ह्रास को लेकर था। बोलते बोलते वो आर्थिक मुद्दों से आगे निकल सामाजिक विसंगतियों और जातिय संघर्ष पर आ गये।आर्थिक मुद्दे अब महवपूर्ण गौण हो गये। पुनः जब उनसे पुरानी जातिय रंजिशों में हर वर्ष मरने वालों की संख्या में आई कमी के बारे में पूछा गया, तो वो धार्मिक असहिष्णुता पर आ गये। जब, उनसे तब के समय हर साल हो रहे दंगों के कारण मेरठ, अहमदाबाद, बिहारशरीफ वगैरह में हजारों निर्दोषों की मौत पर बात की तो वे मानवाधिकार पर अटक गये। फिर जब उनसे The Constitution (Twenty-fourth Amendment) Act, 1971 के बारे में पूछा गया तो वे आतंकवाद पर आ गये। बात गंभीर थी अतः कारण पर भी चर्चा हुयी। तब जाकर असली समस्या तक पहुंच पाये। भर्राए गले से उन्होंने साम्प्रदायिक सरकार की गाय और मंदिर के पीछे चल रहे षडयंत्र का खुलासा किया। बड़ा हृदयविदारक चित्रण था। शून्य में एक रौशनी दिखी, उस रौशनी में उनके उदास चेहरे पर उभरी एक क्षीण खुशी दिखी। समय को कोसते दांत भींचते वो आगे बढ़ गये।
दूसरी तरफ "सत्ता का उत्सव" तीन साल बीत जाने पर भी बदस्तूर जारी दिखा। सुनहरे इतिहास और बेहतर भविष्य की क्लिष्ठ भाषा को समझने की कोशिश करता वर्तमान दिखा।
इन सब से दूर बाँस की तरह बढ़ रही बेटियों और पानी की कमी से झुलसे फसल को ताकते, ललाट के पसीने और आंखों से बहते आँसू को मिलने के पहले ही गमछे से पोंछते अनभिज्ञ किसान दिखे। वो नहीं जानते कि शहर से सत्ता के लिए कुछ भी कर गुजरने को तैयार उन्मादी भीड़, उनके तरफ चल चुकी है। अब उनके कमजोर कंधों की खैर नहीं। 

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